________________
जिनभवननिर्माणविधि पञ्चाशक
छठवें पञ्चाशक में स्तवविधि कही गयी है। उसमें द्रव्यस्तव और भावस्तव के विषय में कहा गया है। जिनभवन-निर्माण द्रव्यस्तव रूप है, इसलिए सातवें पञ्चाशक में जिनभवन-निर्माण-विधि कहने से पूर्व मङ्गलाचरण करते हैं :
मङ्गलाचरण नमिऊण वद्धमाणं वोच्छं जिणभवणकारणविहाणं । संखेवओ महत्थं गुरूवएसाणुसारेणं ।। १ ।। नत्वा वर्धमानं वक्ष्ये जिनभवनकारणविधानम् । सक्षेपतो महार्थं गुरूपदेशानुसारेण ।। १ ।।
वर्धमान स्वामी को नमस्कार करके गुरु के उपदेशानुसार महान् अर्थ को धारण करने वाली जिनभवन-निर्माण-विधि को संक्षेप में कहूँगा ॥ १ ॥
अधिकारी व्यक्ति को जिनभवन कराना चाहिए अहिगारिणा इमं खलु कारेयव्वं विवज्जए दोसो । आणाभंगाउ च्चिय धम्मो आणाएँ पडिबद्धो ॥ २ ॥ अधिकारिणा इदं खलु कारयितव्यं विपर्यये दोषः । आज्ञाभङ्गादेव धर्म आज्ञायां प्रतिबद्धः ।। २ ।।
जिनभवन-निर्माण योग्य व्यक्ति के द्वारा करवाया जाना चाहिए। अयोग्य व्यक्ति के द्वारा करवाने पर अशुभ कर्मबन्ध रूप दोष लगता है, क्योंकि यदि अयोग्य व्यक्ति जिनभवन का निर्माण करवायेगा तो आज्ञा का भंग होगा। चूंकि धर्म आज्ञापालन में निहित है, इसलिए आज्ञाभंग से दोष लगेगा ॥ २ ॥ .
आज्ञा का महत्त्व आराहणाइ तीए पुण्णं पावं विराहणाए उ । एयं धम्मरहस्सं विण्णेयं बुद्धिमंतेहिं ।। ३ ।। आराधनायाः तस्याः पुण्यं पापं विराधनायास्तु । एतद्धर्मरहस्यं विज्ञेयं बुद्धिमद्भिः ।। ३ ।। आप्त-वचन (आज्ञा) का पालन करने से पुण्य अर्थात् शुभ कर्म का
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org