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षष्ठ]
स्तवविधि पञ्चाशक
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__ आदिनाथ भगवान् ने भरत आदि को जिस प्रकार शल्य, विष आदि के उदाहरण देकर विषयभोगों का निषेध किया है, उसी प्रकार जिनभवन निर्माण आदि का निषेध नहीं किया है। यदि आदिनाथ भगवान् को जिनभवन निर्माण आदि अनुमत नहीं होता तो वे विषयभोगों की तरह उनका भी निषेध करते ।। ३५ ।।
ता तंपि अणुमयं चिय अप्पडिसेहाउ तंतजुत्तए । इय सेसाणवि एत्थं अणुमोयणमादि अविरुद्धं ।। ३६ ॥ तत् तदपि अनुमतमेव अप्रतिषेधात् तन्त्रयुक्तया ।। इति शेषाणामपि अत्र अनुमोदनमादि अविरुद्धम् ।। ३६ ।।
भगवान् ने जिनभवन निर्माण आदि का निषेध नहीं किया है, इस शास्त्रयुक्ति से यह सिद्ध है कि जिनभवन आदि का निर्माण उनको अभिमत है। इसी प्रकार साधुओं को भी जिन बिम्बदर्शन से होने वाली प्रसन्नता आदि से द्रव्यस्तव सम्बन्धी अनुमोदन सङ्गत है ।। ३६ ॥
साधुओं के द्रव्यस्तव होने की पुन: पुष्टि जं च चउद्धा विणओ भणिओ उवयारिओ उ जो तत्थ । सो तित्थगरे णियमा ण होइ दव्वत्थयादण्णो ।। ३७ ।। यच्च चतुर्धा विनयो भणित औपचारिकस्तु यः तत्र । सः तीर्थकरे नियमान भवति द्रव्यस्तवादन्यः ।। ३७ ॥
दशवैकालिक के विनयसमाधि अध्ययन आदि में जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचार रूप चार प्रकार की विनय कही गयी है, उसमें जो औपचारिक विनय है वह तीर्थंकर के विषय में द्रव्यस्तव से भिन्न नहीं है अर्थात् द्रव्यस्तव रूप ही है ।। ३७ ॥
एयस्स उ संपाडणहेउं तह चेव वंदणाए उ। पूजणमादुच्चारणमुववण्णं होइ जइणोवि ।। ३८ ॥ एतस्य तु सम्पादनहेतुं तथैव वन्दनायां तु । पूजनाधुच्चारणमुपपन्नं भवति यतेरपि ।। ३८ ।।
द्रव्यस्तवरूप औपचारिक विनय करने के लिए ही चैत्यवन्दन में पूजा आदि का उल्लेख है, इसलिए साधु के लिए भी मर्यादानुकूल द्रव्यस्तव संगत है ।। ३८ ॥
इहरा अणत्थगं तं ण य तयणुच्चारणेण सा भणिता । ता अहिसंधारणओ संपाडणमिट्ठमेयस्स ॥ ३९ ।।
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