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पञ्चाशकप्रकरणम्
[ षष्ठ
समवसरण में पूजा आदि का निषेध नहीं किया गया है, क्योंकि वह भी द्रव्यस्तव है। राजा आदि का यह द्रव्यस्तव भगवान् को अनुमत है ।। ३१ ।। भगवं अणुजाणति जोगं मुक्खविगुणं कदाचिदपि । णय तयगुणोवि तओ ण बहुमतो होति अण्णेसिं ।। ३२ ।। न च भगवान् अनुजानाति योगं मोक्षविगुणं कदाचिदपि । न च तदनुगुणोऽपि तको न बहुमतो भवति अन्येषाम् ।। ३२ ।।
भगवान् मोक्ष के प्रतिकूल व्यापार की अनुमति कभी भी नहीं देते हैं, क्योंकि वे सदा और सर्वत्र पारमार्थिक परोपकार करने की भावना वाले होते हैं और ऐसा नहीं हो सकता कि साधुओं को मोक्ष के अनुकूल क्रिया में बहुमान न हो ॥ ३२ ॥
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द्रव्यस्तव भगवान् को सम्मत है इसकी दूसरी युक्ति जो चेव भावलेसो सो चेव य भगवतो बहुमतो उ । ण तओ विणेयरेणंति अत्थओ सोवि एमेव ॥ ३३ ॥ बहुमतस्तु ।
य एव भावलेश: स एव च भगवतो
न
तको विनेतरेणेति अर्थतः सोऽपि एवमेव ॥ ३३ ॥
जो थोड़ा सा भी भावस्तव है वह ही भगवान् द्वारा स्वीकृत है और वह द्रव्यस्तव के बिना सम्भव नहीं है। इस प्रकार अर्थापत्ति होने से द्रव्यस्तव भी भगवान् द्वारा स्वीकृत है ॥ ३३ ॥
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कज्जं इच्छंतेणं अनंतरं कारणंपि इटुं तु । आहारजतित्तिं इच्छंतेणेह
जह
कार्यमिच्छता अनन्तरं कारणमपि आहारजतृप्तिमिच्छतेह
यथा
भावस्तव रूप कार्य की इच्छा करने वाले के लिए भाव का कारणरूप द्रव्यस्तव भी इष्ट होता है। जिस प्रकार आहार से उत्पन्न तृप्ति को चाहने वाले के लिए आहार करना भी इष्ट होता है ।। ३४ ।
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आहारो || ३४ ॥
इष्टं तु ।
आहार: ।। ३४ ।।
जिणभवणकारणाइवि भरहादीणं ण वारितं जह तेसिं चिय कामा सल्लविसादीहिं जिनभवनकारणाद्यपि भरतादीनां न वारितं यथा तेषामेव कामा: शल्यविषादिभिः
तेण ।
णाएहिं ।। ३५ ।।
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तेन । ज्ञातैः ।। ३५ ।।
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