SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षष्ठ ] स्तवविधि पञ्चाशक १०५ से भी मिले तो वीतराग सम्बन्धी अनुष्ठान की विशेषता ही क्या रही ? अर्थात् कुछ भी नहीं ।। १५ ।। प्रधानद्रव्यस्तव में द्रव्यत्व की सिद्धि उचियाणुट्ठाणाओ विचित्तजइजोगतुल्लमो एस । जं ता कह दव्वत्थओ ? तद्दारेणऽप्पभावाओ ॥ १६ ॥ उचितानुष्ठानाद् विचित्रयतियोगतुल्य एषः । यत्तत् कथं द्रव्यस्तव: ? तद्द्वारेणाल्पभावात् ॥ १६ ।। भावस्तव का कारण नहीं बनने वाले अनुष्ठान द्रव्यस्तव हैं, यदि यह बात मान ली जाती है तो फिर भाववस्तव का कारण बनने वाले जिनभवन निर्माण आदि अनुष्ठान द्रव्यस्तव क्यों होंगे ? भावस्तव क्यों नहीं होंगे ? यह प्रश्न उपस्थित होता है, क्योंकि ये अनुष्ठान आप्तकथित होने के कारण साधुओं के ग्लानसेवा, स्वाध्याय आदि कार्यों के समान ही होते हैं और साधुओं के उपर्युक्त कार्य भावस्तव कहे जाते हैं तो इन अनुष्ठानों को भी भावस्तव क्यों नहीं कहा जाता इसका समाधान यह है कि - साधुओं के उपर्युक्त कार्यों से होने वाले शुभ अध्यवसाय की अपेक्षा जिनभवन निर्माण आदि अनुष्ठानों से होने वाले शुभ अध्यवसाय कम होते हैं, इसलिए वे द्रव्यस्तव हैं ।। १६ ।। भावस्तव की अपेक्षा द्रव्यस्तव की असारता जिणभवणादिविहाणारेणं एस होति सुहजोगो । उचियाणुट्ठाणंपि य तुच्छो जइजोगतो णवरं ॥ १७ ॥ जिनभवनादिविधानद्वारेण एषो भवति शुभयोगः । उचितानुष्ठानमपि च तुच्छो यतियोगत: केवलम् ॥ १७ ॥ यद्यपि जिनभवन निर्माण आदि के रूप में द्रव्य-स्तव साधु के योग अर्थात् प्रवृत्ति की तरह शुभ होता है और आप्तवचन होने के कारण विहित क्रियारूप भी होता है तो भी साधु के योग की अपेक्षा तुच्छ है। क्योंकि साधुओं की प्रवृत्तियाँ स्वरूप से ही शुभ होती हैं। जबकि द्रव्यस्तव जिनभवन निर्माण आदि कार्यों के द्वारा ही शुभ है, स्वरूप से नहीं, उसमें थोड़ा पाप भी होता है ।। १७ ।। द्रव्यस्तव की असारता का कारण सव्वत्थ निरभिसंगत्तणेण जइजोगमो महं होइ । एसो उ अभिस्संगा कत्थइ तुच्छेऽवि तुच्छो उ ।। १८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy