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________________ १०६ पञ्चाशकप्रकरणम् सर्वत्र निरभिष्वङ्गत्वेन यतियोगो महान् भवति । एषस्तु अभिष्वङ्गात् कुत्रचित् तुच्छेऽपि तुच्छतु ॥ १८ ॥ साधु द्रव्य आदि सभी प्रवृत्तिओं में निस्संग होता है, इसलिए उसके क्रिया-व्यापार द्रव्यस्तव की अपेक्षा उत्तम हैं। द्रव्यस्तव करने वाले गृहस्थ तो शरीर, स्त्री और पुत्रादि में आसक्त होते हैं, इसलिए गृहस्थों का द्रव्यस्तव साधुओं की प्रवृत्ति की अपेक्षा कभी-कभी तो तुच्छ से भी तुच्छ होता है ।। १८ ।। आसक्ति के कारण द्रव्यस्तव की असारता का स्पष्टीकरण जम्हा उ अभिस्संगो जीवं दूसेइ णियमतो चेव । तद्दूसियस्स जोगो विसघारियजोगतुल्लोत्ति ॥ १९ ॥ यस्मात्तु अभिष्वङ्गो जीवं दूषयति नियमतश्चैव । तद्दृषितस्य योगो विषघारितयोगतुल्य इति ।। १९ ।। क्योंकि आसक्तिरूप मल जीव को अवश्य ही दूषित कर देता है और दूषित जीव का व्यापार विष से आक्रान्त पुरुष के व्यापार के समान होता है, अर्थात् जिस प्रकार विष से आक्रान्त पुरुष में चेतना के धूमिल होने से उसका व्यापार अल्प- सार्थक ही होता है, उसी प्रकार आसक्ति वाले जीव का व्यापार भी अल्पशुद्ध ही होता है ।। १९ ।। साधु का व्यापार सर्वथा शुद्ध जइणो अदूसियस्सा हेयाओ सव्वहा णियत्तस्स । सुद्धो उ उवादेए अकलंको सव्वहा सो उ ।। २० ।। Jain Education International [ षष्ठ य अदूषितस्य हेयात् सर्वथा निवृत्तिस्य । शुद्धस्तु उपादेये अकलङ्कः सर्वथा सस्तु ।। २० ।। आसक्ति से रहित, अकलुषित तथा हिंसादि पापकर्मों से सर्वथा मुक्त साधु का महाव्रतादि में प्रवृत्ति रूप व्यापार शुद्ध ही होता है, इसलिए साधु का क्रिया - व्यापार हमेशा निर्दोष होता है ।। २० ।। भावस्तव और द्रव्यस्तव में भेद दव्वत्थओऽसमत्तो य । असुहतरंडुत्तरणप्पाओ गदिमादिसु इयरो पुण समत्तबाहुत्तरणकप्पो ॥ २१ ॥ कडुगोसहादिजोगा मंथररोगसमसण्णिहो वावि । पढमो विणोसहेणं तक्खयतुल्लो य बितिओ उ ।। २२ ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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