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पञ्चाशकप्रकरणम्
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[षष्ठ
उक्त प्रकार के भाव की योग्यता वाला द्रव्यस्तव नहीं है, वह अप्रधान द्रव्यस्तव है ।। १२ ॥
___ द्रव्य शब्द का अयोग्यता अर्थ में प्रयोग अप्पाहण्णेऽवि इहं कत्थइ दिट्ठो उ दव्वसद्दोत्ति । अंगारमद्दगो जह दव्वायरिओ सयाऽभव्वो ।। १३ ।। अप्राधान्येऽपि इह कुत्रचिद् दृष्टस्तु द्रव्यशब्द इति । अङ्गारमर्दको यथा । द्रव्याचार्यः सदाऽभव्यः ।। १३ ।।
केवल योग्यता के अर्थ में ही नहीं, अयोग्यता के अर्थ में भी कहीं-कहीं द्रव्य शब्द का प्रयोग देखा गया है। जैसे - अंगारमर्दक नामक आचार्य योग्यतारहित होने के कारण द्रव्याचार्य था और वह आजीवन मुक्ति के अयोग्य रहा ।। १३ ।।
प्रस्तुत विषय का उपसंहार अप्पाहण्णा एवं इमस्स दव्वत्थवत्तमविरुद्धं । आणाबज्झत्तणओ न होइ मोक्खंगया णवरं ।। १४ ।। अप्राधान्यादेवमस्य द्रव्यस्तवत्वमविरुद्धम् । आज्ञाबाह्यत्वाद् न भवति मोक्षाङ्गता नवरम् ।। १४ ।।
इस प्रकार अयोग्यता के अर्थ में भी द्रव्यशब्द का प्रयोग होने से भावस्तव का कारण नहीं बनने वाले अनुष्ठान को द्रव्यस्तव के रूप में मानना योग्य है। हाँ ! इतना अवश्य है कि उससे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है, क्योंकि वह योग्यता रहित होने से आप्त-वचन के बाहर है ।। १४ ।।
___ अप्रधान द्रव्यस्तव से भी अल्प फल की प्राप्ति भोगादिफलविसेसो उ अत्थि एत्तोवि विसयभेदेण । तुच्छो उ तगो जम्हा हवति पगारंतरेणावि ॥ १५ ॥ भोगादिफलविशेषस्तु अस्ति इतोऽपि विषयभेदेन । तुच्छस्तु तको यस्माद् भवति . प्रकारान्तरेणापि ।। १५ ॥
सांसारिक विषय-भोगों आदि की प्राप्ति तो द्रव्यस्तव से भी होती है। क्योंकि स्तव के विषय की अपेक्षा से तो द्रव्यस्तव के विषय वीतराग भगवान् हैं। वीतराग भगवान् विषयक कोई भी अनुष्ठान आज्ञाबाह्य हो तो भी सर्वथा निष्फल नहीं जाता है। इसलिए अप्रधान द्रव्यस्तव आज्ञाबाह्य होने पर भी मनोज्ञ फल देता है, किन्तु वह तुच्छ है। क्योंकि वह फल तो प्रकारान्तर अर्थात् बालतप आदि से भी मिलता है। जो फल दूसरे कारणों से मिलता हो वही वीतराग सम्बन्धी अनुष्ठान
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