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________________ षष्ठ ] स्तवविधि पञ्चाशक १०३ जिनेन्द्रदेव सम्बन्धी हो तो भी द्रव्यस्तव नहीं होता है। क्योंकि आस्थाशून्य अनुष्ठान भावस्तव का कारण नहीं होता है ।। ९ ।। बहुमानशून्य अनुष्ठान भावस्तव का अहेतुक है - इसका कारण समयम्मि दव्वसद्दो पायं जं जोग्गयाए रूढोत्ति । णिरुवचरितो उ बहुहा पओगभेदोवलंभावो ।। १० ।। समये द्रव्यशब्दः प्रायो यद्योग्यतायां रूढ इति । निरुपचरितस्तु बहुधा प्रयोगभेदोपलम्भात् ।। १० ।। जो अनुष्ठान भावस्तव का कारण न बने वह अनुष्ठान द्रव्यस्तव नहीं है, क्योंकि शास्त्र में द्रव्य शब्द प्रायः किसी तरह की औपचारिकता के बिना योग्यता के अर्थ में रूढ़ है अर्थात् जिसमें भावरूप में परिणत होने की योग्यता हो उसे द्रव्य शब्द से सम्बोधित किया जाता है। शास्त्र में ऐसे अनेक प्रयोग उपलब्ध होते हैं, जिनमें द्रव्य शब्द योग्यता का सूचक है ।। १० ।। द्रव्य शब्द के योग्यतावाचक अर्थ का शास्त्र में प्रयोग मिउपिंडो दव्वघडो सुसावगो तह य दव्वसाहुत्ति । साहू य दब्वेदवो एमाइ सुए जओ भणितं ।। ११ ।। मृत्पिण्डो द्रव्यघटः सुश्रावकस्तथा च द्रव्यसाधुरिति । साधुश्च द्रव्यदेव एवमादि श्रुते यतो भणितम् ।। ११ ।। मिट्टी का पिण्डं द्रव्य है, क्योंकि उसमें घट बनने की योग्यता है। अच्छा श्रावक द्रव्यसाधु है और साधु द्रव्यदेव है - इस प्रकार शास्त्र में कहा गया है। तात्पर्य यह है कि मिट्टी भले ही पिण्डाकार है, लेकिन उसमें घड़ा बनने की योग्यता है। उससे घड़ा बन सकता है, इसलिए वह द्रव्यघट है। सुश्रावक में साधु बनने की योग्यता है, इसलिए उसे द्रव्यसाधु कहा जाता है और साधु में देव बनने की योग्यता होने के कारण उसे द्रव्यदेव कहा जाता है ।। ११ ॥ अप्रधान द्रव्यस्तव ता भावत्थयहेऊ जो सो दवत्थओ इह इटो। जो उ व णेवंभूओ स अप्पहाणो परं होति ।। १२ ।। तद् भावस्तवहेतुर्यः स द्रव्यस्तव इहेष्टः । यस्तु वा नैवम्भूतः स अप्रधानः परं भवति ।। १२ ।। जो भावस्तव का हेतु है वही द्रव्यस्तव है, यही यहाँ अभीष्ट है। अत: जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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