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पञ्चाशकप्रकरणम्
यद् वीतरागगामी अथ तत् ननु गर्हितमपि खलु स एवम् । उचितमेव यत्तत् आज्ञाराधना एवम् ।। ७ ।।
स्याद्
आप्तवचन से किञ्चित् भी विपरीत प्रतीत होने वाले अनुष्ठानों को यदि द्रव्यस्तव कहा जाये तो अतिव्याप्ति दोष आ जायेगा और फिर यहाँ आप्तवचन से विपरीत जो हिंसादि विभिन्न क्रियाएँ होंगी वे सभी द्रव्यस्तव हो जायेंगी, जो उचित नहीं है ॥ ६ ॥
पूर्वपक्ष: जब जिनसम्बन्धी अनुष्ठान जिनाज्ञा के विपरीत होने पर भी द्रव्यस्तव है, तब अतिप्रसंग आने का प्रश्न ही कहाँ उठता है ?
उत्तरपक्ष : यदि ऐसा माना जाये तो जिन को गाली देना इत्यादि निन्द्य क्रियाएँ भी द्रव्यस्तव हो जायेंगी, क्योंकि वे भी जिनसम्बन्धी हैं।
पूर्वपक्ष : आज्ञा से विपरीत जिन सम्बन्धी अनुष्ठान उचित हों तो ही द्रव्यस्तव हैं, जिन को गाली देना इत्यादि अनुष्ठान उचित नहीं हैं, इसलिए वे क्रियाएँ द्रव्यस्तव नहीं हो सकतीं हैं।
उत्तरपक्ष : ऐसा मानना आप्तवचन का पालन नहीं है, क्योंकि आप्तवचन से विरुद्ध उचित हो ही नहीं सकता है अर्थात् जो अनुष्ठान आप्तवचन से विरुद्ध हो वह उचित अनुष्ठान नहीं है ॥ ७ ॥
उचित करना ही आप्तवचन का पालन है
उचियं खलु कायव्वं सव्वत्थ सया णरेण बुद्धिमता । इइ फलसिद्धी णियमा एस च्चिय होइ
उचितं खलु कर्तव्यं सर्वत्र सदा नरेण इति फलसिद्धिः नियमादेषैव भवति
[ षष्ठ
आणत्ति ।। ८ ।।
बुद्धिमता ।
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आज्ञेति ।। ८ ।।
बुद्धिमान् मनुष्य को हमेशा देश, काल और परिस्थिति के अनुसार जो उचित हो उसे ही करना चाहिए। उचित करने से निश्चय ही फलप्राप्ति होती है और यही आप्तवचन है ॥ ८ ॥
बहुमान शून्य अनुष्ठान द्रव्यस्तव नहीं है जं पुण एयविउत्तं एगंतेणेव भावसुण्णंति । तं विसयम्मिवि ण तओ भावथयाहेउतो णेयं ॥ ९ ॥ यत्पुनरेतद्वियुक्तम् एकान्तेनैव भावशून्यमिति । तद्विषयेऽपि न तको भावस्तवाहेतुतो ज्ञेयम् ॥ ९ ॥ जो अनुष्ठान औचित्यरहित हो और आदरभाव से सर्वथा शून्य हो, वह
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