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स्तवविधि पञ्चाशक
शास्त्रोक्त विधिपूर्वक जिनमन्दिर का निर्माण, जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा, तीर्थों की यात्रा और जिनप्रतिमा की पूजा करना भावस्तव का निमित्त कारण होने से द्रव्यस्तव कहे जाते हैं ।। ३ ।।
षष्ठ ]
द्रव्यस्तव किस प्रकार के भाव से भावस्तव का कारण बनते हैं इसका निरूपण
विहियाणुट्ठाणमिति एवमेयं सया करेंताणं । होइ चरणस्स हेऊ णो इहलोगादवेक्खा || ४ || विहितानुष्ठानमिदमिति एवमेतत् सदा कुर्वताम् । भवति चरणस्य हेतुः नो इहलोकाद्यपेक्षया ॥ ४ ॥
ये जिनभवन निर्माण आदि धार्मिक अनुष्ठान आगमों में विहित माने गये हैं| भावपूर्वक जिनभवन आदि अनुष्ठान करने वाले के वे अनुष्ठान सर्वविरति का कारण बनते हैं। यदि ये जिनभवनादि धार्मिक अनुष्ठान इहलोक या परलोक में भौतिक सुख पाने के लिए किये जाँय तो वे निदान से दूषित बन जाते है और भावस्तव का कारण नहीं बनते हैं ॥। ४ ॥
रागोऽवि ।
एवं चिय भावथए आणाआराहणाउ जं पुण इय विवरीयं तं दव्वथओवि णो एवमेव भावस्तवे आज्ञाराधनाद् यत् पुनरिति विपरीतं तद् द्रव्यस्तवोऽपि न उपर्युक्त प्रकार का द्रव्यंस्तव केवल भावस्तव का निमित्त ही नहीं होता
भवति ।। ५ ।।
है, अपितु आप्तवचनों का पालन करने के कारण भावस्तव के प्रति सम्मान ( भक्ति भाव ) भी उत्पन्न करता है। यदि यही जिनभवनादि सम्बन्धी धार्मिक अनुष्ठान भौतिक सुखों की अपेक्षा से किया जाये तो वह भावस्तव तो क्या द्रव्यस्तव भी नहीं होता है ॥ ५ ॥
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अतिप्रसङ्ग चित्रानुष्ठानं
होई ॥ ५ ॥
रागोऽपि ।
आप्तोपदेश से विपरीत प्रवृत्ति द्रव्यस्तव भी नहीं भावे अइप्पसंगो आणाविवरीयमेव जं किंचि । इह चित्ताणुट्ठाणं तं दव्वथओ भवे सव्वं ॥ ६ ॥ जं वीयरागगामी अह तं णणु गरहितंपि हु स एवं । सिय उचियमेव जं तं आणाआराहणा एवं ।। ७ ।।
भावे
इह
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आज्ञाविपरीतमेव यत्किञ्चित् ।
तद्रव्यस्तव
भवेत् सर्वम् ॥ ६ ॥
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