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________________ पञ्चम] प्रत्याख्यानविधि पञ्चाशक गुर्वाज्ञा का माहात्म्य गुरुआएसेणं वा जोगंतरगंपि तदहिगं तमिह । गुरुआणाभंगम्मि य सव्वेऽणत्था जओ भणितं ।। ४५ ।। छट्ठट्ठमदसमदुवालसेहिं. मासद्धमासखमणेहिं । अकरितो गुरुवयणं अणंतसंसारिओ होति ।। ४६ ।। गुर्वादेशेन वा योगान्तरकमपि तदधिकं तदिह । गुर्वाज्ञाभङ्गे च सर्वे अनर्था यतो भणितम् ।। ४५ ।। षष्ठाष्टमदशमद्वादशैः मासार्धमासक्षमणैः । अकुर्वन् गुरुवचनम् अनन्तसंसारिको भवति ।। ४६ ।। जो गुरु के आदेश से अपनी भूमिका के अनुरूप कार्य से भिन्न अन्य कार्य करे तो भी उसे प्रत्याख्यान तो होता ही है, क्योंकि अपनी भूमिका के अनुरूप कार्य से गुरु के द्वारा कहा गया कार्य प्रधान है अर्थात् गुर्वाज्ञा प्रधान है। गुर्वाज्ञा के भंग होने पर सभी अनर्थ होते हैं। इसीलिए शास्त्र में कहा गया है कि छ:, आठ, दश, बारह, पन्द्रह उपवास और मासक्षमण करे, किन्तु यदि गुरु की आज्ञा नहीं माने तो वह अनन्त संसारी होता है ।। ४५-४६ ।। विशेष : गुरु संविग्न और गीतार्थ होता है, वह जिनेश्वर की आज्ञा के अनुसार ही आज्ञा करता है। इसलिए उसकी आज्ञा का उल्लंघन जिनेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन होता है। जिनेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन मिथ्यात्व के उदय से होने वाला कदाग्रहरूप है। कदाग्रह अनन्त संसार का कारण है। मिथ्यात्व के उदय से होने वाले कदाग्रह के कारण तप और चारित्र का पालन करने वाला भी अनन्त संसारी होता है। प्रत्याख्यान से अविद्यमान वस्तु का भी लाभ बज्झाभावेऽवि इमं पच्चक्खंतस्स गुणकरं चेव । आसवनिरोहभावा आणाआराहणाओ य॥ ४७ ।। बाह्याभावेऽपि इदं प्रत्याख्यातुः गुणकरं चैव । आस्रवनिरोधभावाद् आज्ञाराधनाच्च ।। ४७ ।। जो वस्तु अपने पास न हो (और भविष्य में मिलने की सम्भावना भी न हो) उस वस्तु का प्रत्याख्यान भी लाभ ही करता है, क्योंकि उससे आस्रव का निरोध होता है – विरति होती है और सर्वज्ञ की आज्ञा का पालन होता है ।। ४७ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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