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पञ्चम]]
प्रत्याख्यानविधि पञ्चाशक
उपर्युक्त विरोध का निराकरण अपमायवुड्विजणगं एयं एत्थंति दंसियं पुव्वं । तब्भोगमित्तकरणे सेसच्चागा तओ अहिगो ।। ३४ ।। अप्रमादवृद्धिजनकम् एतद् अत्रेति दर्शितं पूर्वम् । तद्भोगमात्रकरणे शेषत्यागात् तकोऽधिकः ।। ३४ ।।
आहार का प्रत्याख्यान सर्वविरति में भी अप्रमादवर्धक होता है - ऐसा इसी पञ्चाशक की तेरहवीं गाथा में कहा गया है। त्रिविध आहार में केवल पानी का उपयोग मात्र करने और शेष तीन प्रकार के आहारों का त्याग करने से अप्रमाद
और बढ़ता है। अर्थात् सर्वविरति रूप सामायिक से जो अप्रमाद हुआ हो उसमें त्रिविध आहार प्रत्याख्यान से वृद्धि होती है। इसलिए साधु को भी त्रिविध आहारप्रत्याख्यान उचित है ।। ३४ ।।। विशिष्ट अवस्था में साधु द्विविधाहार प्रत्याख्यान भी कर सकता है एवं कहंचि कज्जे दुविहस्सवि तण्ण होति चिंतमिणं । सच्चं जइणो णवरं पाएण ण अण्णपरिभोगो ।। ३५ ।। एवं कथञ्चित् कार्ये द्विविधस्यापि तन्न भवति चिन्त्यमिदम् । सत्यं यतेः केवलं प्रायेण न अन्यपरिभोगः ।। ३५ ॥
पूर्वपक्ष : साधुओं के लिए त्रिविध आहार-प्रत्याख्यान स्वीकार किया जाये तो अस्वस्थता आदि परिस्थितियों में द्विविध आहार के भी प्रत्याख्यान को क्यों न स्वीकार किया जाये ? इसलिए आपका त्रिविध आहार का प्रत्याख्यान विचारणीय है।
उत्तरपक्ष : आपकी बात सत्य है। साधु को प्रायः अस्वस्थता आदि विशेष परिस्थितियों के अतिरिक्त खादिम और स्वादिम आहार नहीं होता है, क्योंकि शास्त्रानुसार वेदना आदि छह कारणों से भोजन करना आवश्यक है। खादिम और स्वादिम -- इन छह कारणों में उपयोगी नहीं होते हैं। किन्तु विशेष परिस्थिति में स्वादिम की छूट होने से साधु के द्वारा द्विविध आहार-प्रत्याख्यान लिया जा सकता है ।। ३५ ।।
५. भोगद्वार विहिणा पडिपुण्णम्मि भोगो विगए य थेवकाले उ । सुहधाउजोगभावे चित्तेणमणाकुलेण तहा ।। ३६ ।। काऊण कुसलजोगं उचियं तक्कालगोयरं णियमा । गुरुपडिवत्तिप्पमुहं मंगलपाढाइयं चेव ।। ३७ ।।
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