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पञ्चाशकप्रकरणम्
[पञ्चम
लेशोद्देशेन एते भेदा एतेषां दर्शिता एवम् । एतदनुसारत एव शेषाः स्वयमेव विज्ञेयाः ॥ ३१ ।।
इस प्रकार अशनादि चार प्रकार के आहारों के संक्षेप में ये भेद दिखलाये गये हैं। इसी के अनुसार शेष वस्तुओं में से कौन वस्तु किस प्रकार के आहार के अन्तर्गत आती है - यह जान लेना चाहिए ।। ३१ ।।
साधु भी त्रिविधाहार प्रत्याख्यान ले सकते हैं तिविहाइभेयओ खलु एत्थ इमं वण्णियं जिणिंदेहिं । एत्तो च्चिय भेएसुवि सुहुमंति बुहाणमविरुद्धं ।। ३२ ।। त्रिविधादिभेदतः खलु अत्रेदं वर्णितं जिनेन्द्रैः । अत एव भेदेष्वपि सूक्ष्ममिति बुधानामविरुद्धम् ।। ३२ ॥
जिनेश्वरों ने आहार-प्रत्याख्यान का त्रिविध आहार आदि के भेद से वर्णन किया है। ऐसा नहीं है कि आहार प्रत्याख्यान का तात्पर्य चतुर्विध आहार ही हो, अपितु त्रिविध आहार आदि भी हो सकता है, क्योंकि उसमें पानी के छह आगारों का उल्लेख किया गया है। यही कारण है कि अशन-पानादि आहार के चार भेदों में से किसी का भी प्रत्याख्यान अविरोधपूर्वक किया जा सकता है अर्थात् मुनियों के इस अभिग्रह में कि मैं अमुक प्रकार का ही अशन या पान लूँगा में बुद्धजीवियों को कोई विरोध नहीं दिखता है। यह विषय सूक्ष्म होने के कारण विवेकीजन उसे अच्छी तरह समझ सकते हैं ।। ३२ ।।
अन्यों का विरोध अण्णे भणंति जतिणो तिविहाहारस्स ण खलु जुत्तमिणं । सव्वविरइड एवं भेयग्गहणे कहं सा उ ।। ३३ ।। अन्ये भणन्ति यतेस्त्रिविधाहारस्य न खलु युक्तमिदम् । सर्वविरते एवं भेदग्रहणे कथं सा तु ।। ३३ ।। -
दूसरे (दिगम्बर) कहते हैं कि साधु को त्रिविध आहार का प्रत्याख्यान उपयुक्त नहीं है, क्योंकि उनके सर्वविरति होती है। यदि इस प्रकार त्रिविध आहार विशेष का प्रत्याख्यान उनके लिए माना जाये तो सर्वविरति कैसे कही जायेगी? अर्थात् सर्व आहार का प्रत्याख्यान हो तो सर्वविरति कही जायेगी। त्रिविध आहार में सभी आहारों का त्याग नहीं होने से सर्वविरति नहीं कही जा सकती है ।। ३३ ।।
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