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पञ्चाशकप्रकरणम्
[पञ्चम
अपवाद स्वीकार करने का भाव नहीं होता है।
ऐसा कैसे होता है ? इसका निर्देश करते हैं :
कर्मक्षयोपशम अनेक तरह से होता है, इसलिए उसमें उस प्रकार के कर्मक्षयोपशम ही कारण हैं। साधु को सामायिक स्वीकार करते समय और योद्धा को युद्ध में प्रवेश करते समय कर्मक्षयोपशम ही ऐसा होता है, जिससे भविष्य में जिसका परिणाम भंग होता है, उसको भी किसी तरह के अपवाद की अपेक्षा के बिना मरना या विजय पाना - ऐसा अध्यवसाय हो जाता है। वह यह नहीं सोचता कि उसे अपवाद स्वीकार करने पड़ेंगे ।। २४ ।।
४. भेदद्वार आहारजाइओ एस एत्थ एक्कोऽवि होति चउभेओ । असणाइजाइभेया णाणाइपसिद्धिओ ओ ॥ २५ ॥ आहारजातित एषोऽत्र एकोऽपि भवति चतुर्भेदः । अशनादिजातिभेदाद् ज्ञानादिप्रसिद्धितो ज्ञेयः ॥ २५ ।।
जाति की दृष्टि से आहार एक होने पर भी प्रत्याख्यान की अपेक्षा से अशन, पान, खादिम और स्वादिम के भेद से आहार चार प्रकार का होता है। ज्ञान आदि की सिद्धि के लिए ये चार भेद जानना जरूरी है अर्थात् आहार के भेदों का ज्ञान होने से द्विविध-आहार आदि प्रत्याख्यान करते समय उसके अनुसार श्रद्धा, पालन आदि होता है ।। २५ ।।।
णाणं सद्दहणं गहण पालणा विरतिवुड्डि चेव एवंति । होइ इहरा उ मोहा विवज्जओ भणियभावाणं ।। २६ ॥ ज्ञानं श्रद्धानं ग्रहणं पालना विरतिवृद्धिरेव एवमिति । भवति इतरथा तु मोहाद् विपर्ययो भणितभावानाम् ।। २६ ॥
सर्वप्रथम आहार के चार भेदों का ज्ञान होता है। फिर तद्विषयक रुचि होती है, फिर द्विविध-आहार आदि भेद वाले प्रत्याख्यान को स्वीकार करने का भाव होता है, फिर उसका उपयुक्त पालन होता है, तत्पश्चात् आहार सम्बन्धी विरति की वृद्धि होती है। ये सब आहार के भेदों का ज्ञान होने पर सम्भव होते हैं। यदि भेदों का वर्णन न किया जाये तो उपर्युक्त ज्ञान, श्रद्धा आदि का होना सम्भव नहीं है ।। २६ ॥
असणं ओयणसत्तुगमुग्गजगाराइ खज्जगविही य। खीराई सूरणाई मंडगपभिई य विण्णेयं ।। २७ ।।
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