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पञ्चम]
प्रत्याख्यानविधि पञ्चाशक
तत् खलु निरभिष्वङ्गं समतया सर्वभावविषयं तु । कालावधावपि परं भङ्गभयात् नावधित्वेन ।। १८ ।।
यह सामायिक अपेक्षा रहित है, क्योंकि सभी भावों का विषय समता है अर्थात् सामायिक में सभी पदार्थों पर समभाव होता है, अत: उसमें अपेक्षा नहीं होती है ।। १८ ॥
प्रश्न : सर्वसावधयोग का त्याग सर्वकाल तक नहीं होता है, क्योंकि उसमें जीवनपर्यन्त – इस प्रकार काल की मर्यादा है। इसलिए इसमें वर्तमान जीवन के बाद मैं पाप करूँगा - ऐसी अपेक्षा है। यदि इस जीवन के बाद भी पाप करने की अपेक्षा न हो तो यावज्जीवन कहकर उसे मर्यादित करने की क्या आवश्यकता है। इसलिए यावज्जीवन कहकर यह कैसे कह सकते हैं कि सामायिक अपेक्षा से रहित है ?
उत्तर : सामायिक में जीवनपर्यन्त ऐसी मर्यादा प्रतिज्ञाभंग के भय से रखी जाती है न कि अपेक्षा से। क्योंकि जीवनपूर्ण होने के बाद यदि मोक्ष नहीं मिला तो पाप होना है। इसलिए सामायिक काल मर्यादापूर्वक होने पर भी निरभिष्वङ्ग (निरपेक्ष) है।
सामायिक में आगारों की अनावश्यकता की दृष्टान्त से सिद्धि मरणजयज्झवसियसुहडभावतुल्लमिह हीणणाएण । अववायाण ण विसओ भावेयव्वं पयत्तेणं ।। १९ ।। मरणजय-अध्यवसितसुभट-भावतुल्यमिह हीनज्ञातेन । अपवादानां ण विषयो न भावयितव्यं प्रयत्नेन ।। १९ ।।
सामायिक सुभटभाव के समान है अर्थात् युद्ध के समय योद्धा के हृदय में जैसा भाव होता है वैसा ही भाव सामायिक को स्वीकार करने वाले के मन में होता है। योद्धा के हृदय में 'मरना' या 'विजय प्राप्त करना' – ये दो निर्णय होते हैं। ऐसे निर्णय वाले योद्धा के मन में शत्रु का आक्रमण होने पर भी पीछे हट जाना, डर जाना आदि विचार आते ही नहीं हैं। उसी प्रकार साधु को भी सामायिक में 'मरना' या 'कर्मरूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना' ये दो निर्णय होते हैं अर्थात् ‘मर जाऊँगा, किन्तु सामायिक भंग नहीं करूँगा', ऐसा दृढ़ निश्चय होता है।
विशेष : योद्धा भाव का उदाहरण इस प्रसंग में सामायिक से निम्न स्तर का और लौकिक है, क्योंकि सामायिक करने वाले की विजय अनेक भवों तक होती है, जबकि योद्धा की विजय उसी भव तक सीमित है और उसका हृदय रागादि आन्तरिक शत्रुओं से पराभूत होता है ।। १९ ।।
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