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पञ्चाशकप्रकरणम्
[ पञ्चम
उत्तर : प्रत्याख्यान तिविहार आदि भेद से लिया जाये तो भी वह सामायिक का बाधक नहीं होता है, क्योंकि तिविहार आदि प्रत्याखान करने वाला त्याग नहीं किये गये आहार में प्रवृत्ति और त्याग किये गये आहार में निवृत्ति समभावपूर्वक करता है। जिस प्रकार साधु को एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान पर जाने में छोड़े हुए स्थान के प्रति द्वेष नहीं होता है और स्वीकार किये गये स्थान के प्रति राग नहीं होता है, अपितु दोनों स्थानों के प्रति समभाव होता है। उसी प्रकार त्यक्त और अत्यक्त भोजन के प्रति उसमें समभाव ही होता है ।। १५ ।।
सामायिक में आगार क्यों नहीं - इसका समाधान सामइए आगारा महल्लतरगेवि णेह पण्णत्ता । भणिया अप्पतरेऽवि हु णवकाराइम्मि तुच्छमिणं ।। १६ ।। समभावे च्चिय तं जं जायइ सव्वत्थ आवकहियं च । ता तत्थ ण आगारा पण्णत्ता किमिह तुच्छंति? ।। १७ ॥ सामयिके आगारा महत्तरकेऽपि नेह प्रज्ञप्ताः । भणिता अल्पतरेऽपि खलु नवकारादौ तुच्छमिदम् ।। १६ ।। समभावे चैव तद् यज्जायते सर्वत्र यावत्कथितं च । तत् तत्र न आगारा: प्रज्ञप्ताः किमिह तुच्छमिति ॥ १७ ।।
पूर्वपक्ष - सर्वसावधयोग के त्यागरूप सामायिक का प्रत्याख्यान जीवनपर्यन्त (मन, वचन, कायपूर्वक) त्रिविध होने से तप के प्रत्याख्यान से बड़ा होने पर भी उसमें आगारों (अपवादों) का विधान नहीं किया गया है और नवकार आदि का प्रत्याख्यान छोटा होने पर भी उसमें आगारों (अपवादों) का विधान है, यह युक्तियुक्त नहीं है ॥ १६ ॥
उत्तरपक्ष - आगारों की आवश्यकता वहाँ होती है जहाँ भंग का प्रसंग हो। सर्वसावधयोग के त्यागरूप सामायिक में (मित्र-शत्रु आदि) सभी पदार्थों पर जीवनपर्यन्त समभाव होने के कारण प्रत्येक प्रवृत्ति समभावपूर्वक ही होती है। बीमारी आदि के समय अपवाद का सेवन करना पड़े तो वह भी समभाव पूर्वक ही होता है। इसलिए सामायिक भंग होने का प्रश्न ही नहीं उठता है और इसीलिए वहाँ आगारों (अपवादों) की जरूरत भी नहीं होती है। अत: इसमें असंगति कहाँ है ? ।। १७ ॥
सामायिक में निराशंस भाव की सिद्धि तं खलु णिरभिस्संगं समयाए सव्वभावविसयं तु । कालावहिम्मिवि परं भंगभया णावहित्तेण ।। १८ ।।
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