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पञ्चाशकप्रकरणम्
जाये तो भी आयंबिल भंग नहीं होता है।
(ख) गिहत्थसंसद्वेणं (गृहस्थ संसृष्टेन ) : आहार देने वाला गृहस्थ यदि विगय (विकृति) आदि अकल्प्य वस्तु से लिप्त करछुल आदि पात्र से परोसे तो वह अकल्प्य वस्तु से मिश्रित आहार खाने के बाद भी नियम भंग नहीं होता है। (ग) उक्खित्तविवेगेणं ( उत्क्षिप्तविवेकेन) : रोटी, भात आदि सूखी वस्तु पर आयंबिल में अकल्प्य पिण्डविगय (लड्डू) आदि वस्तु पड़ी हो तो उसे अलग करके उठा लेने के बाद सूखी रोटी, भात आदि खाया जाये तो कोई नियम भंग नहीं होता है, किन्तु यदि नरम गुड़ आदि ढीली वस्तु पड़ी हो तो वह कल्प्य नहीं है, क्योंकि उसके ढीली होने के कारण वह वस्तु जिस पर रखी गयी हो उस पर चिपक जाती है। इसलिए उस पर से उठा लेने के बाद भी उसका अंश शेष रह जाता है, अत: वह आयम्बिल में खाने योग्य नहीं है।
७. अभक्तार्थ : जिसमें भोजन का प्रयोजन ही नहीं है ऐसा प्रत्याख्यान अभक्तार्थ अर्थात् उपवास है। इस उपवास - प्रत्याख्यान में सूर्योदय से अभक्तार्थ प्रत्याख्यान करता हूँ ऐसा नियम होने से एक बार थोड़ा भी भोजन करने के बाद शेष दिन का उपवास करना मान्य नहीं है अर्थात् सम्पूर्ण उपवास ही मान्य है। इसमें नवकार के दो, पुरिमड्ड के अन्तिम दो और परिट्ठावणियागारेणं ये पाँच आगार हैं। ये पाँच पहले ही कहे जा चुके हैं, किन्तु परिद्वावणियागारैणं आगार में इतना विशेष है
तिविहार उपवास किया हो तो पानी पीने की छूट के साथ अवशिष्ट भोजन भी खाया जा सकता है। यदि चौविहार उपवास किया हो और पानी और भोजन दोनों अवशिष्ट हों और उन्हें प्रतिस्थापित करने अर्थात् फेंकने के अतिरिक्त कोई विकल्प न हो तो उन दोनों का उपभोग किया जा सकता है, क्योंकि जिसको फेंकना पड़ता है उसे ही उपयोग में लाने (खाने) की छूट है।
पानी ।
[ पञ्चम
८. पानी के आगार : मुनियों को सदा अचित्त पानी पीना होता है। गृहस्थों को भी एक सण आदि में अचित्त पानी पीना होता है। इसलिए यहाँ अचित्त पानी का आगार कहा जा रहा है। अचित्त पानी के लेवेण, अलेवेण, अच्छेण, बहुलेण, ससित्थेण और असित्थेण ये छ: आगार हैं।
(क) लेवेण (लेप - युक्त) : चावल, तिल, खजूर आदि का धोया हुआ
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(ख) अलेवेण (लेप-रहित) : जिस पानी में खाद्य वस्तुओं के कण आदि न हो वह अलेप पानी कहलाता है, यथा
राख, चूने आदि का पानी।
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