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________________ पञ्चम] प्रत्याख्यानविधि पञ्चाशक फैलाये तो उसका नियम भंग नहीं होता है। (ग) गुरुअब्भुट्ठाणेणं (गुरुअभ्युत्थानेन) : सम्मान्य आचार्य या कोई नये साधु पधारें और उस समय विनय के लिए उठना पड़े तो एकासणा का भंग नहीं होता है, क्योंकि विनय अवश्य करनी चाहिए। (घ) पारिट्ठावणियागारेणं (पारिष्ठापनिकागारेण) : कभी-कभी भिक्षा में आहार अधिक आ जाने के कारण अवशिष्ट भाग का परित्याग करना पड़ता है। अवशिष्ट भाग का परित्याग नहीं करना पड़े - इसके लिए एकासणा करके उठ जाने के बाद भी कोई साधु उस अवशिष्ट अंश का भोजन करे तो नियम भंग नहीं होता है, क्योंकि परित्याग करने में साधु को बहुत दोष लगता है और आगमानुसार अपवाद से भोजन करे तो लाभ होता है। ५. एकठाण (एक स्थान) : एक ही स्थान पर बैठकर भोजन करना एकठाण कहलाता है। इसमें उपर्युक्त आठ आगारों में से आउंटणपसारेणं को छोड़कर सात आगार हैं। इसमें आउंटणपसारण नहीं होने से पैर को फैलाना आदि नहीं हो सकता है, अर्थात् इसमें पद्मासन लगाकर ही बैठना होता है तथा शरीर के एक हाथ और मुँह के अतिरिक्त कोई अंग नहीं हिलना चाहिए। एकासण और एकठाण में दो तरह का भेद होता है - (क) एकासण में बैठक के अतिरिक्त शरीर के सभी अंग हिला सकते हैं, जबकि एकठाण में केवल एक हाथ और मुँह ही हिला सकते हैं। (ख) एकासण तिविहार भी हो सकता है, जबकि एकठाण चौविहार ही होता है। ६. आयंबिल (आचाम्ल) : आच का अर्थ होता है मांड और अम्ल का अर्थ होता है खट्टा रस। जिसमें भात-उड़द आदि के साथ साधन के रूप में मांड और खट्टा रस - ये दो पदार्थ या कोई एक उपयोग में लाया जाता है, वह आयंबिल प्रत्याख्यान कहलाता है। आयंबिल में नवकार के दो, पुरिमड्ड के दो तथा लेवालेवेणं, गिहत्यसंसद्वेणं, उक्खित्तविवेगेणं और परिट्ठावणियागारेणं – ये चार इस प्रकार कुल आठ आगार हैं। इनमें से नवकार के दो, पुरिमड्ड के दो तथा परिट्ठावणियागारेणं - इन पाँच का विवेचन हो गया है, शेष तीन का अर्थ इस प्रकार है - (क) लेवालेवेणं (लेपालेपेन) -- आयंबिल में भोजन का पात्र अकल्प्य विगय (घृतादि) वस्तु से लिप्त हो और उस पात्र को हाथ आदि से पोंछा जाये फिर भी उस पात्र में घृतादि की चिकनाहट रह जाये और उसमें आहार किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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