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________________ पञ्चम] प्रत्याख्यानविधि पञ्चाशक त्याग पौरुषी तथा डेढ़ प्रहर तक आहार का त्याग सड्डपोरिसी (सार्धपौरुषी) कहलाता है। इस पौरुषी और सार्धपौरुषी के प्रत्याख्यान में नवकारशी के दो और पच्छनकालेणं, दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं – ये चार अर्थात् कुल छह आगार (अपवाद) हैं । " पच्छन्नकालेणं (प्रच्छन्नकालेन) : अर्थात् अदृश्य काल। जब बादल आदि से सूर्य ढंक जाये तो परछाईं नहीं पड़ती है, ऐसे में छाया के आधार पर प्रहर का ज्ञान नहीं हो सकने के कारण अन्य किसी अनुमान आदि से प्रत्याख्यान का समय जानकर आहार किया जाये तो समय न हुआ हो तो भी प्रत्याख्यान भंग नहीं होता है। दिसामोहेणं ( दिशामोहेन ) : भ्रम से पूर्व दिशा को पश्चिम दिशा समझकर प्रत्याख्यान के समय से पहले भोजन हो जाये तो प्रत्याख्यान भंग नहीं होता है। साहुवयणेणं (साधुवचनेन) : सूर्योदय के पश्चात् तीन चौथाई प्रहर हो तो साधुओं को पात्रों का प्रतिलेखन करने के लिए पौरुषी पढ़ाने की विधि करनी होती है। उस समय कोई साधु पौरुषी हो गयी - ऐसा कहे, उससे दूसरा साधु प्रत्याख्यान की पौरुषी हो गयी - ऐसा समझ ले। पौरुषी हो गयी कहने वाले साधु का आशय पात्रों के प्रतिलेखन की पौरुषी का होता है, किन्तु कोई साधु उसे प्रत्याख्यान की पौरुषी समझकर समय से पहले आहार-पानी करे तो प्रत्याख्यान भंग नहीं होता है। विशेष : प्रच्छन्नकाल आदि तीन कारणों से भ्रमवश भोजन पहले हो जाये और बाद में भोजन करते-करते पता चल जाये कि अभी समय नहीं हुआ है तो तुरन्त भोजन बन्द कर देना चाहिए और समय पूरा होने पर बाकी भोजन करना चाहिए। समय नहीं हुआ जानकर भी भोजन करते रहने पर प्रत्याख्यान भंग होता है। सव्वसमाहिवत्तियागारेणं (सर्वसमाधिप्रत्ययागारेण) : इसमें सर्व, समाधि, प्रत्यय और आगार - ये चार शब्द हैं। सर्व अर्थात् सम्पूर्ण, समाधि = स्वस्थता (आर्त-रौद्र ध्यान का त्याग), प्रत्यय = कारण, आगार = छूट। अर्थात् सम्पूर्ण समाधि के लिए छूट। पौरुषी अथवा सार्धपौरुषी का प्रत्याख्यान करने के बाद शरीर में असह्य पीड़ा हो जाये और अधैर्यता के कारण आर्त-रौद्र ध्यानरूप असमाधि होने लगे तो समाधि को बनाये रखने के लिए प्रत्याख्यान के समय के पहले ही यदि औषधि, भोजन आदि लेना पड़े तो नियम भंग नहीं होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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