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पञ्चाशकप्रकरणम्
[पञ्चम
द्वौ चैव नमस्कारे आगारौ षट् च पौरुष्यां तु। सप्तैव च पूर्वार्धे एकाशनके अष्टैव ।। ८ ।। सप्तकस्थानस्य तु अष्टैवाचामाम्लस्य आगाराः। पञ्च अभक्तार्थस्य तु षट् पाने चरिमे चत्वारि ।। ९ ॥ पञ्च चत्वारः अभिग्रहे निर्विकृतिके अष्ट नव च आगाराः । अप्रावरणे पञ्च तु भवन्ति शेषेषु चत्वारि ।। १० ।। नवनीतावगहिमके आद्रवदधिपिशितघृतगुले चैव । नव आगाराः तेषां शेषद्रवाणां च अष्टैव ।। ११ ॥ उपर्युक्त गाथाओं का विस्तृत भावार्थ निम्नवत् है -
१. नवकार - नवकार अर्थात् सूर्योदय से दो घड़ी (४८ मिनट) पश्चात् नवकार गिने जाने तक आहार का त्याग करना। यहाँ सूर्योदय के बाद दो घड़ी पूर्ण होना और नवकार मंत्र गिनना दोनों का ग्रहण करना चाहिए। इसलिए दो घड़ी के पहले नवकार गिन लें तो प्रत्याख्यान पूरा न होगा तथा दो घड़ी के बाद भी जब तक नवकार न गिना जाये, तब तक भी प्रत्याख्यान पूरा नहीं होगा। दो घड़ी के बाद नवकार गिनने से प्रत्याख्यान पूरा होगा।
नवकार प्रत्याख्यान में अन्नत्थणाभोगेणं और सहसागारेणं-ये दो आगार (छूट) हैं।
___ अन्नत्थणाभोगेणं शब्द में अन्नत्थ और अनाभोग – ये दो शब्द हैं। अन्नत्थ का अर्थ है अन्यथा नहीं होना और अनाभोग का अर्थ है विस्मरण अर्थात् विस्मरण से प्रत्याख्यान का अन्यथा नहीं होना। अन्नत्थ शब्द का जिस प्रत्याख्यान में जितने आगार होते हैं उन सभी के साथ सम्बन्ध होता है। इसका अनाभोग आदि अपवादों के साथ प्रत्याख्यान करता हूँ - ऐसा अर्थ होगा। प्रत्याख्यान या उसके समय का विस्मरण हो जाने के कारण त्यक्त वस्तुओं को खा लेने से प्रत्याख्यान भंग नहीं होता है।
सहसागारेणं (सहसाकार) अर्थात् अज्ञानवश त्याग की गयी वस्तु को अचानक मुँह में डाल लेने से नियम भंग नहीं होता है।
२. पोरिसी (पौरुषी) / सड्डपोरिसी (सार्धपौरुषी) : पौरुषी याने पुरुष के शरीर के बराबर छाया जिस काल में हो वह काल पौरुषी कहलाता है। सूर्योदय के बाद दिन का एक चौथाई भाग बीत जाने पर पुरुष की छाया उसके शरीर की लम्बाई के बराबर होती है। इसलिए दिन का चौथा भाग पौरुषी कहलाता है - इसे प्रहर भी कहते हैं, अर्थात् सूर्योदय से एक प्रहर तक आहार
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