________________
पञ्चम ]
प्रत्याख्यानविधि पञ्चाशक
अत्र
पुनश्चतुर्भङ्गो
विज्ञेयो ज्ञायकेतरगतस्तु |
।
शुद्धाशुद्धा प्रथमान्तिमा तु शेषेषु तु विभाषा ।। ६ ।।
यहाँ प्रत्याख्यान के स्वरूप के जानकार और जानकार से भिन्न व्यक्ति के भेद से प्रत्याख्यान के चार भेद होते हैं १. ज्ञायक के समीप ज्ञायक प्रत्याख्यान ले, २ . ज्ञायक के समीप अज्ञायक प्रत्याख्यान ले, ३. अज्ञायक के समीप ज्ञायक प्रत्याख्यान ले और ४. अज्ञायक के समीप अज्ञायक प्रत्याख्यान ले। इन चार भेदों में प्रथम विशुद्ध और अन्तिम बिल्कुल अशुद्ध प्रत्याख्यान है । द्वितीय और तृतीय शुद्धाशुद्ध हैं अर्थात् कुछ दृष्टियों से शुद्ध हैं और कुछ दृष्टियों से अशुद्ध हैं ॥ ६ ॥ दूसरे और तीसरे प्रकार क्यों शुद्ध हैं और क्यों अशुद्ध हैं इसका स्पष्टीकरण बिइए जाणावेउं ओहेणं तइय जेट्ठगाइंमि ।
कारणओ उ ण दोसो इहरा होइत्ति
गहणविही ॥ ७ ॥
द्वितीये ज्ञापयित्वा ओघेन तृतीये ज्येष्ठकादौ । कारणतस्तु न दोष इतरथा भवतीति ग्रहणविधिः ।। ७ ।।
जानकार गुरु अज्ञानी को प्रत्याख्यान कराते समय वह प्रत्याख्यान कब आयेगा, उसमें कल्प्य और अकल्प्य वस्तुएँ कौन-कौन हैं इत्यादि को ठीक तरह से समझाकर प्रत्याख्यान देवे तो वह प्रत्याख्यान शुद्ध है।
तीसरे भंग (अज्ञायक के समीप ज्ञायक के प्रत्याख्यान लेने) में गुरु या संसारी बड़े भाई आदि जो प्रत्याख्यान के स्वरूप से अनभिज्ञ हों उनके पास जानकार साधु विनय-पालन आदि पुष्ट कारणों से प्रत्याख्यान ले तो शुद्ध है । पुष्ट कारण के बिना ले तो अशुद्ध है || ७ ||
Jain Education International
२. आगारद्वार
दो चेव णमोक्कारे आगारा छच्च पोरसीए पुरिमड्ढे एक्कासणगम्मि
सत्तेव
य
सत्तेगद्वाणस्स
उ अट्टेवायंबिलस्स अभत्तट्ठस्स उ छ प्पाणे चरिम
पंच
पंच चउरो अभिग्गहि णिव्विइए अट्ठ णव य आगारा । अप्पाउरणे पंच उ हवंति सेसेसु वणी ओगाहिमए अद्दवदहिपिसियघयगुले आगारा तेसिं सेसदवाणं च
णव
―――
For Private & Personal Use Only
७७
उ ।
अट्ठेव ॥ ८ ॥
आगारा । चत्तारि ।। ९ ।।
चत्तारि ॥ १० ॥
चेव ।
अट्ठेव ॥ ११ ॥
www.jainelibrary.org