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________________ ७६ पञ्चाशकप्रकरणम् [पञ्चम . इह पुनरद्धारूपं नवकारादि प्रतिदिनोपयोगीति | आहारगोचरं यतिगृहिणां भणाम इदं चैव ।। ३ ।। नवकार आदि दस प्रकार के कालिक प्रत्याख्यान आहार सम्बन्धी होने से साधु-श्रावकों को प्रायः प्रतिदिन उपयोग में आते हैं, इसलिए इस प्रकरण में उन्हीं का विवेचन कर रहे हैं। ये प्रत्याख्यान दस हैं - १. नवकार, २. पौरुषीय, ३. पुरिमड्ढ, ४. एकाशन, ५. एकठाण, ६. आयंबिल, ७. अभत्त (उपवास), ८. चरिम, ९ अभिग्रह, १०. विगय। ये दस प्रत्याख्यान काल की मर्यादा पूर्वक किये जाने के कारण कालिक प्रत्याख्यान कहे जाते हैं ।। ३ ।। द्वारों का निर्देश गहणे आगारेसुं सामइए चेव विहिसमाउत्तं । भेए भोगे सयपालणाएँ अणुबंधभावे य ।। ४ ।। ग्रहणे आकारेषु सामायिक एव विधिसमायुक्तम् । भेदे भोगे स्वयं पालनायामनुबन्धभावे च ।। ४ ।। विधिपूर्वक ग्रहण, आगार (आपवादिक स्थितियाँ), सामायिक, भेद, भोग, नियम-पालन और अनुबन्ध – इन सात द्वारों के आधार पर कालिक प्रत्याख्यान का विधिपूर्वक वर्णन किया जायेगा ।। ४ ।। .ग्रहणद्वार कौन किसके पास किस प्रकार प्रत्याख्यान ले, इसका निर्देश गिण्हति सयंगहीयं काले विणएण सम्ममुवउत्तो । अणुभासंतो पइवत्थु जाणगो जाणगसगासे ।। ५ ।। गृह्णाति स्वयंगृहीतं काले विनयेन सम्यगुपयुक्तो । अनुभाषमाणः प्रतिवस्तु ज्ञायको ज्ञायकसकाशे ।। ५ ॥ प्रत्याख्यान के स्वरूप का जानकार जीव स्वयं के निश्चय के आधार पर प्रत्याख्यान के स्वरूप के जानकार गुरु के पास से उचित समय पर विनय एवं उपयोगपूर्वक गुरु प्रत्याख्यान का जो पाठ बोले उसे (मन में) स्वयं बोलते हुए सम्यग् रूप से प्रत्याख्यान ग्रहण करे। विशेष : प्रत्याख्यान दर्शन, ज्ञान, विनय, अनुभाषण, पालना और भाव – इन शुद्धियों से युक्त हो तो शुद्ध कहा जाता है ।। ५ ॥ एत्थं पुण चउभंगो विण्णेओ जाणगेयरगओ उ। सुद्धासुद्धा पढमंतिमा उ सेसेसु उ विभासा ।। ६ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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