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________________ प्रत्याख्यानविधि पञ्चाशक श्रावक को जिनपूजा के पश्चात् प्रत्याख्यान करना चाहिए। इसलिए जिनपूजा के पश्चात् प्रत्याख्यान की विधि कहने हेतु मङ्गलाचरण करते हैं। मङ्गलाचरण नमिऊण वद्धमाणं समासओ सुत्तजुत्तिओ वोच्छं ।। पच्चक्खाणस्स विहिं मंदमइविबोहणट्ठाए ॥ १ ॥ नत्वा वर्धमानं समासतः सूत्रयुक्तित: वक्ष्ये ।। प्रत्याख्यानस्य विधिं मन्दमतिविबोधनार्थाय ।। १ ।। वर्धमान स्वामी को नमस्कार करके मन्दबुद्धि वालों के बोध के लिए संक्षेप में आगम और युक्ति के आधार पर प्रत्याख्यान की विधि कहूँगा ।। १ ।। प्रत्याख्यान के अर्थ और भेद पच्चक्खाणं नियमो चरित्तधम्मो य होति एगट्ठा । मूलुत्तरगुणविसयं चित्तमिणं वणियं समए ।। २ ।। प्रत्याख्यानं नियमश्चारित्रधर्मश्च भवन्ति एकार्थाः । मूलोत्तरगुणविषयं चित्रमिदं वर्णितं समये ।। २ ।। प्रत्याख्यान, नियम और चारित्रधर्म एक ही अर्थ वाले हैं। आत्महित की दृष्टि से प्रतिकूल प्रवृत्ति के त्याग की मर्यादापूर्वक प्रतिज्ञा करना प्रत्याख्यान कहलाता है। यह प्रत्याख्यान मूलगुण और उत्तरगुण के दो भेद से दो प्रकार का होता है। साधु के पाँच महाव्रत और श्रावक के पाँच अणुव्रत मूलगुण प्रत्याख्यान हैं। साधु के पिण्डविशुद्धि आदि गुण तथा श्रावक के दिग्विरति इत्यादि व्रत उत्तरगुण हैं। इसके अतिरिक्त दूसरे भी अनेक भेद होते हैं। इसलिए मूलगुण और उत्तरगुण प्रत्याख्यान शास्त्र में अनेकशः वर्णित हैं। मूलगुणों का पोषण करने में जो सहायक होते हैं, वे उत्तरगुण कहलाते हैं ।। २ ।। यहाँ किस प्रत्याख्यान का वर्णन होगा, इसका निर्देश करते हैं इह पुण अद्धारूवं णवकारादि पतिदिणोवओगित्ति । आहारगोयरं जइगिहीण भणिमो इमं चेव ।। ३ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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