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________________ ७४ पञ्चाशकप्रकरणम् . [चतुर्थ जिस प्रकार महासमुद्र में फेंकी गयी जल की एक बूंद का भी नाश नहीं होता है, उसी प्रकार जिनों के गुणरूपी समुद्रों में पूजा अक्षय ही होती है ।। ४७ ।। __ पूजा से होने वाले महान् लाभ उत्तमगुणबहुमाणो पयमुत्तमसत्तमज्झयारम्मि । उत्तमधम्मपसिद्धी पूयाएँ जिणवरिंदाणं ।। ४८ ।। उत्तमगुणबहुमानः पदमुत्तमसत्त्वमध्यकारे । उत्तमधर्मप्रसिद्धिः पूजया जिनवरेन्द्राणाम् ।। ४८ ।। देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान की पूजा करने से उनके प्रति सम्मान होता है। जिन, गणधर, इन्द्र, चक्रवर्ती आदि उत्तम पद मिलता है और उत्कृष्ट धर्म की प्रसिद्धि होती है। पूजा करने से प्रकृष्ट पुण्यकर्म का बन्ध और अशुभकर्मों का क्षय होता है। परिणामस्वरूप वीतराग अवस्था की प्राप्ति होती है ।। ४८ ।। पूजा करने की भावना से भी महान् लाभ सुव्वइ दुग्गइणारी जगगुरुणो सिंदुवारकुसुमेहिं । पूजापणिहाणेणं उववण्णा तियसलोगम्मि ॥ ४९ ।। श्रूयते दुर्गतिनारी जगद्गुरोः सिंदुवारकुसुमैः । पूजाप्रणिधानेन उपपना त्रिदशलोके ।। ४९ ।। जिनेन्द्र प्रवचन में सुना जाता है कि एक दरिद्र नारी जगद्गुरु (भगवान् जिनेन्द्रदेव) की सेमल के पुष्पों से मैं पूजा करूँ - ऐसे संकल्पमात्र से स्वर्ग में उत्पन्न हुई ।। ४९ ।। उपसंहार सम्मं णाऊण इमं सुयाणुसारेण धीरपुरिसेहिं । एवं चिय कायव्वं अविरहियं सिद्धिकामेहिं ।। ५० ।। सम्यग् ज्ञात्वा इदं श्रुतानुसारेण धीरपुरुषैः । एवमेव कर्तव्यमविरहितं सिद्धिकामैः ॥ ५० ॥ उपर्युक्त पूजाविधान को भलीभाँति जानकर आगमानुसार मुक्तिकामी धीरपुरुषों को निरन्तर जिनपूजा करनी चाहिए ।। ५० ॥ ॥ इति पूजाविधिर्नाम चतुर्थं पञ्चाशकम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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