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________________ चतुर्थ ] पूजाविधि पञ्चाशक ७३ . जिस प्रकार मन्त्रविद्यादि की साधना से मन्त्रादि को लाभ नहीं होने पर भी साधक को लाभ होता है। अग्नि आदि के सेवन से अग्नि आदि को लाभ नहीं होने पर भी सेवन करने वाले को लाभ होता है, उसी प्रकार जिनपूजा से जिनेन्द्रदेव को लाभ नहीं होने पर भी उनकी पूजा करने वाले (पूजक) को लाभ अवश्य होता है ।। ४४ ।। जीवहिंसा के भय से पूजा नहीं करने वाले को उलाहना देहादिणिमित्तंपि हु जे कायवहम्मि तह पयट्टति । जिणपूयाकायवहमि तेसिमपवत्तणं मोहो ।। ४५ ।। देहादिनिमित्तमपि खलु ये कायवधे तथा प्रवर्तन्ते । जिनपूजाकायवधे तेषामप्रवर्तनं मोहः ॥ ४५ ॥ जो गृहस्थ शरीर, घर, पुत्र, कलत्रादि के लिए खेती आदि द्वारा जीवहिंसा में प्रवृत्त होते हैं, उनकी जिनपूजा में जीवहिंसा के भय से अप्रवृत्ति मूर्खता (मोह) ही है, अन्यथा जिससे अनेक लाभ होते हैं - ऐसी जिनपूजा में प्रवृत्ति क्यों नहीं करे? |॥ ४५ ॥ विशेष : जिनपूजा से निम्नाङ्कित लाभ हैं – १. भावविशुद्धि, २. सम्यग् दर्शनादि गुणों की प्राप्ति, ३. फलत: चारित्र की प्राप्ति से सम्पूर्ण जीव-हिंसा का अभाव, ४. अन्य जीवों को धर्म-प्राप्ति, ५. परिणामत: स्व-पर मुक्ति। . मोक्षाभिलाषी को जिनपूजा अवश्य करनी चाहिए सुत्तभणिएण विहिणा गिहिणा णिव्वाणमिच्छमाणेण । तम्हा जिणाण पूजा कायव्वा अप्पमत्तेणं ॥ ४६ ।। सूत्रभणितेन विधिना गृहिणा निर्वाणमिच्छता । तस्माद् जिनानां पूजा कर्तव्या अप्रमत्तेन ।। ४६ ॥ . अत: निर्वाण के इच्छुक गृहस्थ को प्रमादरहित भाव से आगमसम्मत विधि द्वारा भगवान् जिनेन्द्रदेव की पूजा अवश्य करनी चाहिए ।। ४६ ।। पूजा का महत्त्व एक्कंपि उगदबिंदू जह पक्खित्तं महासमुद्दम्मि । जायइ अक्खयमेवं पूया जिणगुणसमुद्देसु ।। ४७ ।। एकमपि उदकबिन्दुर्यथा प्रक्षिप्तं महासमुद्रे । • जायते अक्षयमेवं पूजा जिनगुणसमुद्रेषु ।। ४७ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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