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पञ्चाशकप्रकरणम्
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[चतुर्थ
यद्यपि जिनपूजा में किसी न किसी रूप में कथञ्चित् हिंसा तो होती ही है, फिर भी गृहस्थों के लिए कुएँ खुदवाने के उदाहरण के आधार पर इसकी निर्दोषता सिद्ध होती है (लेकिन साधुओं के लिए वह द्रव्यपूजा निर्दोष नहीं होती है, क्योंकि साधु द्रव्यपूजा के लिये स्नानादि करे तो उसकी प्रतिज्ञा भंग होती है)।
विशेष : जिस प्रकार कुँआ खोदते समय अनेक जीवों की हिंसा होती है, किन्तु बाद में कुँए के जल से अनेक लोकोपकारी कार्य होते हैं, इसलिए कुंआ खोदने की प्रवृत्ति लाभकारी होती है। उसी प्रकार जिनपूजा में हिंसा होने पर भी पूजा से होने वाले शुभ-भावों से अन्ततः लाभ ही होता है ।। ४२ ।।
गृहस्थों के जिनपूजा की निदोषता का कारण असदारंभपवत्ता जं च गिही तेण तेसि विनेया । तनिव्वित्तिफलच्चिय एसा परिभावणीयमिणं ॥ ४३ ।। असदारम्भप्रवृत्ताः यच्च गृहिणः तेन तेषां विज्ञेया ।। तनिवृत्तिफलैव एषा परिभावनीयमिदम् ॥ ४३ ॥
यहाँ यह विचार करना चाहिए कि गृहस्थों के लिए जिनपूजा निर्दोष है, क्योंकि गृहस्थ कृषि आदि असदारम्भ (अशुभकार्य) में प्रवृत्ति करते हैं, जबकि जिनपूजा से वे उस असदारम्भ से निवृत्त होते हैं। अत: जिनपूजा निवृत्तिरूप फल वाली है।
विशेष : यह निवृत्ति कालान्तर और वर्तमान की दृष्टि से दो प्रकार से होती है -
(१) जिनपूजा से उत्पन्न भावविशुद्धि से कालान्तर में चारित्रमोहनीय कर्म का क्षयोपशम होने से चारित्र की प्राप्ति होती है। जिससे असदारम्भ से सर्वथा निवृत्ति हो जाती है।
(२) जिनपूजा जितने समय तक होती है उतने समय तक असद् आरम्भ नहीं होता है और शुभभाव उत्पन्न होते हैं। इसलिए जिनपूजा में दूषण लगाने वालों को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि जिनपूजा से असदारम्भ की निवृत्ति होती है ।। ४३ ।।
पूजा से पूज्य को लाभ न हो तो भी पूजक को तो लाभ होता है उवगाराभावम्मिवि पुज्जाणं पूजगस्स उवगारो । मंतादिसरणजलणाइसेवणे जह तहेहंपि ।। ४४ ।। उपकाराभावेऽपि पूज्यानां पूजकस्य उपकारः । मन्त्रादिस्मरणज्वलनादिसेवने यथा तथेहापि ।। ४४ ।।
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