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चतुर्थ ]
पूजाविधि पञ्चाशक
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भौतिक ऋद्धि की थोड़ी भी इच्छा के बिना परोपकार की भावना से तीर्थङ्कर बनने की अभिलाषा दोषयुक्त नहीं है, क्योंकि तीर्थङ्कर बनने की इच्छा वाला जीव तीर्थङ्कर नाम कर्म बाँधने से अनेक जीवों का हितकारी बनता है। यह परमानन्द का जनक और अपूर्व चिन्तामणि के समान है ।। ३८ ।।
उपर्युक्त गुणों से युक्त होने से उसके धर्मदेशना आदि कार्य हितकारी और आदरणीय हैं। केवल परोपकार बुद्धि से तीर्थङ्कर बनने की भावना रूप उत्तम भाववाले जीव की तीर्थङ्कर बनने की अभिलाषा अर्थापत्ति से धर्मदेशनादि अनुष्ठान में प्रवृत्ति रूप है, इसलिए वह अभिलाषा दोषरहित है ।। ३९ ।।
प्रस्तुत प्रकरण का उपसंहार कयमित्थ पसंगेणं पूजा एवं जिणाण कायव्वा । लभ्रूण माणुसत्तं परिसुद्धा सुत्तनीतीए ।। ४० ॥ कृतमत्र प्रसङ्गेन पूजा एवं जिनानां कर्तव्या। लब्ध्वा मानुषत्वं परिशुद्धा सूत्रनीत्या ।। ४० ।।
इस पूजाविधान में प्रसङ्गवश प्रणिधान का विवेचन किया गया है। मनुष्यत्व को प्राप्त करके आगम-सम्मत विधि आदि से परिशुद्ध भगवान् जिनेन्द्रदेव की पूजा करनी चाहिए ॥ ४० ।।
(७) पूजा निर्दोषता प्रकरण पूजाएँ कायवहो पडिकुट्ठो सो य णेव पुज्जाणं । उवगारिणित्ति तो सा परिसुद्धा कह णु होइत्ति ।। ४१ ।। भण्णइ जिणपूयाए कायवहो जतिवि होइ उ कहिंचि । तहवि तई परिसुद्धा गिहीण कूवाहरणजोगा ।। ४२ ।। पूजायां कायवधः प्रतिक्रुष्टः स च नैव पूज्यानाम् । उपकारिणीति तस्मात् सा परिशुद्धा कथं नु भवतीति ।। ४१ ।। भण्यते जिनपूजायां कायवधो यद्यपि भवति तु कथञ्चित् । तथापि तका परिशुद्धा गृहीणां कूपोदाहरणयोगात् ।। ४२ ।।
पूजा में पृथिव्यादि जीवनिकायों की हिंसा तो होती ही है, अत: उसे परिशुद्ध कैसे कहा जा सकता है ? क्योंकि जीव-हिंसा का जिनेन्द्रदेव ने निषेध किया है। दूसरी बात, इस पूजा से यदि जिनेन्द्रदेव का कोई लाभ होता हो तो जीव-हिंसा होने के बाद भी निर्दोष माना जा सकता है, किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं है। अर्थात् भगवान् जिनेन्द्रदेव वीतराग होते हैं, उन्हें पूजा से आनन्द नहीं होता है, अत: जिनपूजा निर्दोष कैसे कही जा सकती है ?।। ४१ ॥
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