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चतुर्थ ]
पूजाविधि पञ्चाशक
विशेष : प्रणिधान का अर्थ निश्चय या संकल्प होता है। यहाँ इसका तात्पर्य है - प्रार्थना गर्भित संकल्प, क्योंकि इसमें प्रभु के समक्ष एकाग्रचित्त होकर भवनिर्वेद आदि की माँग की जाती है।
प्रणिधान की कक्षा
उचियं च इमं णेयं तस्साभावम्मि तप्फलस्सण्णे । अप्पमत्तसंजयाणं आराऽणभिसंगओ ण परे ।। ३५ ।।
उचितं च इदं ज्ञेयं तस्याभावे तत्फलस्यान्ये |
अप्रमत्तसंयतानामारादनभिष्वङ्गतो
न परस्मिन् ।। ३५ ।।
प्रार्थनागर्भित प्रणिधान तभी तक योग्य है जब तक भवनिर्वेदादि न मिलें। भवनिर्वेदादि गुणों के मिल जाने के बाद माँग करने को कुछ नहीं रह जाता है।
कुछ आचार्यों का कहना है कि भवनिर्वेदादि की अप्रमत्तावस्था आदि उच्च कक्षा की उपलब्धि तक या मोक्षरूप फल न मिले तब तक माँग करनी चाहिए। यह मत भी उचित है। अर्थात् दोनों का भाव एक ही है, क्योंकि भवनिर्वेदादि गुण जब उच्चकोटि के बनते हैं तब ही अप्रमत्तदशा या मोक्ष मिलता है। यहाँ भवनिर्वेदादि गुण जब तक न मिलें तब तक प्रार्थना करना योग्य है। अथवा भवनिर्वेदादि भाव उच्चकोटि के बनते हैं तो अप्रमत्तदशा या मोक्ष मिले बिना रहता नहीं है, इसलिए भवनिर्वेदादि गुण न मिलें तब तक प्रार्थना करना योग्य है। इन दोनों का भाव समान है । अप्रमत्त गुणस्थान से पहले अर्थात् छठें गुणस्थान तक यह प्रार्थना करना उचित है। उसके बाद नहीं, क्योंकि इस प्रार्थना में भी राग होता है। अप्रमत्तदशा में राग नहीं होता है। इसमें साधक मोक्ष और संसार दोनों से नि:स्पृह रहता है, इसलिए वह प्रार्थना नहीं करता है ।। ३५ ।।
प्राणिधान निदान नहीं है - इसका प्रमाण
मोक्खंगपत्थणा इय ण णियाणं तदुचियस्स विग्णेयं । सुत्ताणुमइत्तो जह बोहीए
पत्थणा
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मोक्षाङ्गप्रार्थना इति न निदानं तदुचितस्य विज्ञेयम् । सूत्रानुमतितो यथा बोधेः प्रार्थना मानम् ।। ३६ ।।
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माणं ।। ३६ ।।
मोक्ष के हेतुओं की प्रार्थना रूप जो कि प्रणिधान या संकल्प के योग्य पुरुषों ( अप्रमत्त संयतों) के होते हैं, उनको निदान नहीं मानना चाहिए, क्योंकि वह आगम सम्मत है। जिस प्रकार बोधिलाभ (जिनधर्मप्राप्ति) के लिए गणधरकृत 'लोगस्स' सूत्र में की गयी प्रार्थना उचित मानी गयी है, वैसे ही यहाँ भी समझना
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