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________________ पञ्चाशकप्रकरणम् [ चतुर्थ लोकविरुद्धत्यागो गुरुजनपूजा परार्थकरणञ्च । शुभगुरुयोगः तद्वचनसेवना आभवमखण्डा ।। ३४ ।। __ हे वीतराग ! हे जगद्गुरु ! आपकी जय हो। हे भगवन् ! आपके प्रभाव से मुझे भवनिर्वेद, मार्गानुसारिता, इष्टफलसिद्धि, लोकविरुद्ध प्रवृत्तियों का त्याग, गुरुजनपूजा, परार्थकरण, शुभगुरुयोग और संसारसागर पर्यन्त अर्थात् मोक्ष नहीं मिले तब तक अखण्ड गुरु-आज्ञा का पालन – ये आठ भाव प्राप्त हों ।। ३३-३४ ।। (१) भवनिर्वेद : संसार के प्रति विरक्ति धर्मसाधना की नींव है। बिना भव- निर्वेद के धर्म बिना नींव के मकान के समान होता है। जिन्हें संसार से उद्वेग नहीं है वे मोक्ष के लिए प्रयत्न कैसे कर सकते हैं, क्योंकि संसार और मोक्ष दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं। (२) मार्गानुसारिता : कदाग्रह से रहित तात्त्विक मार्ग का अनुसरण करना मार्गानुसारिता है। अपनी ही मान्यता को सत्य मानने वाले दूसरों की सच्ची बात को समझने का प्रयत्न नहीं करते और उनको कोई समझाये तो भी वे मानने को तैयार नहीं होते हैं। इस प्रकार कदाग्रह से सत्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता है। अत: सत्य को प्राप्त करने के लिए कदाग्रह से मुक्त होकर सत्य का अनुसरण करने की प्रवृत्ति मार्गानुसारिता है। (३) इष्टफलसिद्धि : धर्म में प्रवृत्ति हो -- ऐसी लौकिक आवश्यकताओं की उपलब्धि। जीवन के लिए उन आवश्यक वस्तुओं की प्राप्ति होनी चाहिए, जिससे उल्लासपूर्वक धर्म में प्रवृत्ति हो सके। इसलिए आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति की माँग करनी चाहिए। (४) लोकविरुद्धत्याग : इसका उल्लेख दूसरे पंचाशक की ८, ९ एवं १०वी गाथा में आ गया है - अत: वहाँ देखें। (५) गुरुजनपूजा : माता, पिता, विद्यागुरु, ज्ञानवृद्ध, वयोवृद्ध और धर्मोपदेशक - ये सब शिष्ट पुरुष गुरु के रूप में मान्य हैं। धर्म प्राप्त करने के लिए इन गुरुओं का आदर करना आवश्यक है। (६) परार्थकरण : परोपकार के कार्य करना। धर्म प्राप्त करने की योग्यता पाने के लिए भी स्वार्थ से परे होकर लोकोपकारी कार्य करने चाहिए। (७) शुभगुरुयोग : रत्नत्रय रूप गुणों से सम्पन्न उत्तम गुरु का संयोग भी आवश्यक है। (८) शुभगुरुवचन सेवा : चारित्रवान् आचार्य की आज्ञा का पालन। मोक्ष नहीं मिले तब तक गुरु के प्रत्येक उपदेश का पालन अनिवार्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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