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चतुर्थ ]
पूजाविधि पञ्चाशक
प्रणिधान की अनिवार्यता
एवं तु इट्ठसिद्धी ? दव्वपवित्तीउ अण्णहा तम्हा अविरुद्धमिणं यमवत्यंतरे
एवं तु इष्टसिद्धिः द्रव्यप्रवृत्तिस्त्वन्यथा तस्मादविरुद्धमेतत् ज्ञेयमवस्थान्तर
णियमा । उचिए ।। ३१ ।।
नियमात् ।
उचिते ।। ३१ ।।
इस प्रकार प्रणिधान (शुभसंकल्प) करने से नियमतः इष्टकार्य की सिद्धि होती है, अन्यथा संकल्प रहित मात्र द्रव्यरूप प्रवृत्ति से न तो भाव ही बनते हैं और न इष्टफल की प्राप्ति ही सम्भव होती है। अतः प्रणिधान करना आगमानुकूल है, ऐसा जानना चाहिए और इसे यथासम्भव करना चाहिए ।। ३१ ।।
प्रश्न : प्रणिधान नहीं करें तो क्या परेशानी है?
उत्तर : प्रणिधान (शुभसंकल्प) नहीं करने से क्या इष्टफल की प्राप्ति होती है? अर्थात् नहीं होती । प्रणिधान नहीं करने से धार्मिक अनुष्ठान द्रव्यरूप होते हैं, भावरूप नहीं बन पाते। प्रणिधान से धार्मिक अनुष्ठान भावरूप बन जाते हैं। अतः प्रणिधान इष्टसिद्धि का कारण होने से उचित अवसरों पर उसका करना आवश्यक है।
प्रणिधान करने की विधि
तं पुण संविग्गेणं उवओगजुएण तिव्वसद्धाए । सिरणमियकरयलंजलि इय कायव्वं पयत्तेणं ।। ३२ ।।
तत् पुन: संविग्रेन उपयोगयुतेन तीव्र श्रद्धया । शिरनमितकरतलाञ्जलिरिति कर्तव्यं प्रयत्नेन ।। ३२ ।।
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मोक्षार्थी जीव को उपयोगपूर्वक तीव्र श्रद्धा से सिर पर हाथों की अंजलि लगाकर आदरपूर्वक निम्न प्रणिधान (शुभसंकल्प) करना चाहिए ।। ३२ ।।
जिनेश्वर के समक्ष प्रणिधान
जय वीयराय! जयगुरु! होउ ममं तुह पभावओ भयवं! | भवणिव्वेओ माणुसारिया इट्ठफलसिद्धी ।। ३३ ।। लोयविरुद्धच्चाओ गुरुजणपूआ परत्थकरणं च । सुहगुरुजोगो तव्वयणसेवणा आभवमखंडा || ३४ ॥
जय वीतराग! जगद्गुरो ! भवतु मम त्वत्प्रसादतः भगवन्! । भवनिर्वेदो मार्गानुसारिता
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इष्टफलसिद्धि: ।। ३३ ।।
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