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चतुर्थ ] .
पूजाविधि पञ्चाशक
भगवान् जिनेन्द्रदेव के सद्भूत गुणों का संकीर्तन करने वाली गम्भीर पद और अर्थ से युक्त सारभूत (श्रेष्ठ) स्तुतियाँ या स्तोत्र होने चाहिए ।। २४ ।।
सुन्दर स्तुति-स्तोत्रों की महत्ता का कारण तेसिं अत्थाहिगमे णियमेणं होइ कुसलपरिणामो । सुंदरभावा तेसिं इयरम्मिवि रयणणाएण ।। २५ ।। तेषामधिगमे नियमेन भवति कुशलपरिणामः । सुन्दरभावात् तेषामितरेऽपि रत्नज्ञातेन ।। २५ ।। .
उन स्तुतियों और स्तोत्रों के अर्थ का ज्ञान होने पर नियमत: परिणाम शुभ होता है, क्योंकि उनका भाव शुभ होता है और जिनको अर्थ का ज्ञान नहीं होता है उनका भी रत्नज्ञानन्याय से परिणाम शुभ ही होता है ।। २५ ।।
जरसमणाई रयणा अण्णायगुणावि ते समिति जहा । कम्मजराई थुइमाइयावि तह भावरयणा उ ।। २६ ।। ज्वरशमनादीनि रत्नानि अज्ञातगुणान्यपि तान् शमयन्ति यथा । कर्मज्वरादीनि स्तुत्यादीन्यपि तथा भावरत्नानि ।। २६ ।।
जिस प्रकार ज्वरादि का शमन करने वाले रत्नों के गुण का ज्ञान रोगी को नहीं होने पर भी रत्न उसके ज्वर को शान्त कर देता है, क्योंकि रत्न का यह स्वभाव ही होता है कि वह रोगी को उसके रोग निवारण रूप सामर्थ्य का ज्ञान नहीं होने पर भी उसके ज्वर को शान्त कर देता है, उसी प्रकार भाव रूपी रत्नों से युक्त स्तुतिस्तोत्र भी शुभभाव वाले होने के कारण उनके अर्थ का ज्ञान नहीं होने पर भी कर्मरूपी ज्वरादि रोगों को दूर कर देते हैं ।। २६ ।।
स्तुतिस्तोत्रपूर्वक चैत्यवन्दन करने का उपदेश ता एयपुव्वगं चिय पूजाए उवरि वंदणं नेयं । अक्खलियाइगुणजुयं जहाऽऽगमं भावसारं तु ।। २७ ।। तद् एतत्पूर्वकमेव पूजाया उपरि वन्दनं ज्ञेयम् ।। अस्खलितादिगुणयुतं यथाऽऽगमं भावसारं तु ॥ २७ ।।
सारभूत स्तुति-स्तोत्रों से शुभ परिणाम होने के कारण पूजा करने के बाद स्तुतिस्तोत्रपूर्वक ही चैत्यवन्दन करना चाहिए। चैत्यवन्दन जिनाज्ञा के अनुसार अस्खलित गुणों आदि से युक्त और भावपूर्वक ही करना चाहिए। अस्खलित गुण आदि अनुयोगद्वार ग्रन्थ से जान लेना चाहिए ।। २७ ।।
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