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पञ्चाशकप्रकरणम्
भृत्या अपि स्वामिन इति यत्नेन कुर्वन्ति ये तु स्वनियोगम् । फलभाजनं त इतरेषां क्लेशमात्रं
भवन्ति
भुवनगुरूणां जिनानां तु विशेषत एवमेव तत् एवमेव पूजा एतेषां बुधैः
[ चतुर्थ
तु ।। २१ ।।
केवल पूजा में ही नहीं, अपितु लोक में भी जो सेवक अपने स्वामी राजादि का कार्य आदरपूर्वक करता है उसे भी सेवा का फल मिलता है, क्योंकि राजा उस पर खुश होता है और जो अपने स्वामी का कार्य अनादरपूर्वक करता है उसे सेवा का फल नहीं मिलता है और उल्टे स्वामी के नाराज होने के कारण शारीरिक और मानसिक कष्ट पाता है।
द्रष्टव्यम् ।
कर्तव्या ।। २२ ।
जब एक छोटे से देश के स्वामी राजादि की आदरपूर्वक सेवा करने पर ही फल मिलता है तो तीनों लोकों के स्वामी जिनेन्द्रदेव की तो इससे भी अधिक आदर से पूजा की जाये तो ही फल मिलेगा। इसलिए बुद्धिजीवियों को जिनेन्द्रदेव की पूजा अत्यादरपूर्वक करनी चाहिए ।। २१-२२ ।।
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(५) स्तुति स्तोत्र द्वार
जिनेन्द्रदेव के प्रति बहुमान होने का फल
बहुमाणोऽवि हु एवं जायइ परमपयसाहगो णियमा । सारथुइथोत्तसहिया तह य चितियवंदणाओ य ।। २३ ।। बहुमानोऽपि खलु एवं जायते परमपदसाधको नियमात् । सारस्तुतिस्तोत्रसहिता तथा च चैत्यवन्दनाच्च ।। २३ ॥
उपर्युक्त विधिपूर्वक जिनपूजा करने से भगवान् जिनेन्द्रदेव के प्रति बहुमान ( सम्मान) भी होता है और नियमपूर्वक मोक्ष की प्राप्ति भी होती है। सारभूत स्तुति तथा स्तोत्र सहित चैत्यवन्दन से भी भगवान् का सम्मान होता है ।। २३ ।।
विशेष : एक श्लोक को स्तुति और अनेक श्लोकों को स्तोत्र कहते हैं।
स्तुति स्तोत्र कैसे होने चाहिए
सारा पुण थुइथोत्ता गंभीरपयत्थविरइया जे सब्भूयगुणुक्कित्तणरूवा खलु ते जिणाणं साराणि पुनः स्तुति - स्तोत्राणि गम्भीरपदार्थविरचितानि यानितु । सद्भूतगुणोत्कीर्तनरूपाणि खलु तानि
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उ ।
तु ।। २४ ।।
नानान्तु ।। २४ ।
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