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चतुर्थ ]
पूजाविधि पञ्चाशक
तत् निजविभवानुरूपं विशिष्टपुष्पादिकैः जिनपूजा । कर्तव्या बुद्धिमता तस्मिन् बहुमानसारा च ।। १८ ।।
उत्तम द्रव्यों के कारण उत्तम भाव होने से अपने वैभव के अनुसार उत्तम पुष्पादि साधनों से बुद्धिमान लोगों को जिनेन्द्रदेव की बहुमानपूर्वक पूजा करनी चाहिए ।। १८ ।।
(४) विधिद्वार एसो चेव इह विही विसेसओ सव्वमेव जत्तेणं । जह रेहति तह सम्म कायव्वमणण्णचेटेणं ।। १९ ।। वत्थेण बंधिऊणं णासं अहवा जहासमाहीए । वज्जेयव्वं तु तदा देहम्मिवि कंडुयणमाई ।। २० ।। एष एव इह विधिः विशेषतः सर्वमेव यत्नेन । यथा शोभते तथा सम्यक् कर्तव्यमनन्यचेष्टेन ।। १९ ॥ वस्त्रेण बध्वा नासमथवा यथासमाधिः । वर्जयितव्यं तु तदा देहेऽपि कण्डूयनादिः ।। २० ॥
जिनपूजा में सामान्य विधि (चौथी से अठारहवीं गाथा तक) बतला दी गयी है। विशेष विधि इस प्रकार है - (१) पूजा इतने आदर से करनी चाहिए कि चढ़ाई गई पूजा की सामग्री देखने में अच्छी लगे, जैसे पुष्पादि इस तरह चढ़ाना चाहिए कि वे सुशोभित हों। इसी तरह प्रत्येक वस्तु का अच्छी तरह उपयोग करके पूजन सामग्री का दृश्य सुन्दर बनाना चाहिए। (२) पूजा करते समय दूसरी कोई भी क्रिया नहीं करनी चाहिए ।। १९ ।।
(३) वस्त्र से नासिका बाँधकर पूजा करनी चाहिए, जिससे दुर्गन्धयुक्त श्वास आदि प्रभु को न लगे। नासिका बाँधने से यदि असुविधा होती हो तो नासिका बाँधे बिना भी पूजा की जा सकती है। (४) पूजा आदि करते समय शरीर को खुजलाना, नाक से श्लेष्म निकालना, विकथा करना आदि क्रियाओं का त्याग करना चाहिए ।। २० ॥
पूजा में आदर की प्रधानता का कारण भिच्चावि सामिणो इय जत्तेण कुणंति जे उ सणिओगं । होति फलभायणं ते इयरेसि किलेसमित्तं तु ।। २१ ।। भुवणगुरूण जिणाणं तु विसेसओ एयमेव दट्ठव्वं । ता एवं चिय पूया एयाणं बहेहिं कायव्वा ।। २२ ।।
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