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पञ्चाशकप्रकरणम्
[ चतुर्थ
अनुसार नीतिपूर्वक प्राप्त किये गये धन से श्रद्धापूर्वक पूजा करना भाव - पवित्रता
है ।। ९ ।।
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जिनपूजा के लिए स्नान-क्रिया में हिंसा होने पर भी लाभ हाणाइवि जयणाए आरंभवओ गुणाय णियमेण । सुहभावहेउओ खलु विण्णेयं कूवणाएणं ॥ १० ॥ स्नानाद्यपि यतनया आरम्भवतो गुणाय नियमेन । शुभभावहेतुत: खलु विज्ञेयं कूपज्ञान ।। १० ।। खेती, व्यापारादि से सदा पृथ्वीकायिक आदि जीवों की हिंसा रूप कार्य में स्थित गृहस्थों को जिनपूजा के लिए यत्नपूर्वक स्नान करना भी नियम से पुण्यबन्ध के लिए ही होता है, क्योंकि यह शुभभाव का हेतु है।
जिस प्रकार कुआँ खोदने में बहुत से जीवों की हिंसा होती है, किन्तु खोदने या खुदवाने वालों का आशय हिंसा करना नहीं, अपितु जल निकालना होता है, जिससे बहुत से लोकोपकारी कार्य सिद्ध होते हैं। उसी प्रकार जिनपूजा के लिए स्नान करने में थोड़ी हिंसा तो होती है, किन्तु पूजा के फलस्वरूप पुण्यबन्ध होने से लाभ ही होता है ।। १० ।।
स्नानादि में यतना
भूमीपेहणजलछाणणाइ जयणा उ होउ ण्हाणाओ । एत्तो विसुद्धभावो अणुहवसिद्धो च्चिय बुहाणं ॥ ११ ॥ भूमिप्रेक्षण - जलच्छाणनादिः यतना तु भवति स्नानादौ । इतो विशुद्धभावोऽनुभवसिद्ध
एव बुधानाम् ।। ११ ।
स्नानादि करने की भूमि का जीवरक्षा के लिए निरीक्षण करना चाहिए, जल को छान लेना चाहिए। पानी में मक्खियाँ न पड़ जायें, इसका ध्यान रखना चाहिए । यही स्नानादि में यतना है।
क्या है ?
प्रश्न : यतनापूर्वक स्नान करना शुभभाव का कारण है, इसकी प्रामाणिकता
उत्तर : इसमें अनुभव प्रमाण है । यतनापूर्वक स्नान करने से शुभ अध्यवसाय होता है - यह बुद्धिशालियों को अनुभव सिद्ध है ।। ११ ।।
पूजा के लिए आरम्भ का त्याग करने वाले गृहस्थ को लगते दोष अन्नत्थारं भवओ धम्मेऽणारंभओ अणाभोगो । लोए पवयखिंसा अबोहिबीयंति दोसा य ॥ १२ ॥
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