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चतुर्थ ]
पूजाविधि पञ्चाशक
वृद्धि हो। यदि आजीविका के अर्जन के समय पूजा की जायेगी तो कल्याण की परम्परा का विच्छेद हो जायेगा ।। ६ ।।
वित्तीवोच्छेयम्मि य गिहिणो सीयंति सव्वकिरियाओ । णिरवेक्खस्स उ जुत्तो संपुण्णो संजमो चेव ।। ७ ।। वृत्तिव्यवच्छेदे च गृहिणः सीदन्ति सर्वक्रियाः । निरपेक्षस्य तु युक्तः सम्पूर्णः संयमश्चैव ।। ७ ।।
आजीविका के व्यवच्छिन्न होने पर गृहस्थों की सभी क्रियाएँ अवरुद्ध हो जाती हैं। सर्वथा निरपेक्ष व्यक्ति के लिए तो. सर्वविरति रूप संयम ही योग्य है, क्योंकि सर्वविरतिरूप संयम के बिना नि:स्पृह बनना सम्भव नहीं है। गृहस्थ के लिए सर्वथा नि:स्पृह बनकर रहना असम्भव है, अत: उसे आजीविका का अर्जन करना होगा, आजीविका का व्यवच्छेद हो जाने पर तो गृहस्थ की समस्त क्रियाएँ अस्त-व्यस्त हो जाती हैं ।। ७ ।।
ताऽऽसिं अविरोहेणं आभिग्गहिओ इहं मओ कालो । तत्थावोच्छिण्णो जं णिच्चं तक्करणभावोत्ति ।। ८ ॥ तस्मादासामविरोधेनाभिग्रहिक इह मतः कालः । तत्राव्यवच्छिन्नो यन्नित्यं तत्करणभाव इति ।। ८ ।।
इसलिए आजीविका सम्बन्धी क्रियाओं में व्यवधान न पड़ता हो - ऐसे समय पर पूजा का अभिग्रह करना चाहिए। नित्य जिनपूजा किये बिना मैं खाना नहीं खाऊँगा, पानी नहीं पीऊँगा - इस प्रकार के अभिग्रहों में जो आजीविका का बाधक न हो, ऐसा कोई भी अभिग्रह (नियम) लेना चाहिए। गृहस्थों के लिए जिनपूजा का वही काल कहा गया है, जो आजीविका अर्जन में बाधक नहीं हो, साथ ही अभिग्रह लेने से प्रतिदिन पूजा करने का परिणाम (भाव) भंग नहीं होता है। अभंग परिणाम (भाव) अभंग पुण्यबन्ध का हेतु है ।। ८ ।।
(२) शुद्धि विचार तत्थ सुइणा दुहावि हु दव्वे ण्हाएण सुद्धवत्थेण । भावे उ अवत्थोचियविसुद्धवित्तिप्पहाणेण ॥ ९ ॥ तत्र शुचिना द्विधाऽपि खलु द्रव्ये स्नातेन शुद्धवस्त्रेण । भावे तु अवस्थोचितविशुद्धवृत्तिप्रधानेन । ९ ।।
द्रव्य और भाव - इन दो प्रकारों से पवित्र होकर जिनपूजा करनी चाहिए। स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहनना द्रव्य-पवित्रता है और अपनी स्थिति के
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