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पञ्चाशकप्रकरणम्
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[चतुर्थ
पवित्र होकर उचित समय पर विशिष्ट पुष्पादि से तथा उत्तम स्तुतिस्तोत्र आदि से जिनपूजा करनी चाहिए।
यह द्वारगाथा है। इसमें निर्दिष्ट (१) काल, (२) शुचि, (३) पूजा-सामग्री, (४) विधि और (५) स्तुति-स्तोत्र - इन पाँच द्वारों का क्रमशः विवेचन किया जायेगा । फिर प्रणिधान और पूजा की निर्दोषता - ये दो प्रकरण आयेंगे ।। ३ ।।
(१)कालद्वार
धर्म-क्रिया में काल की महत्ता कालम्मि कीरमाणं किसिकम्मं बहुफलं जहा होइ । इय सव्वा चिय किरिया णियणियकालम्मि विण्णेया ।। ४ ।। काले क्रियमाणं कृषिकर्म बहुफलं यथा भवति । इति सर्वैव क्रिया निजनिजकाले विज्ञेया ।। ४ ।।
जिस प्रकार उचित समय पर किया गया कृषि-कार्य बहुत फलदायी होता है, उसी प्रकार सभी धर्म-क्रियाएँ यथासमय की जायें तो बहुत लाभदायक होती हैं ।। ४ ॥
जिनपूजा में काल सो पुण इह विण्णेओ संझाओ तिण्णि ताव आहेण । वित्तिकिरियाऽविरुद्धो अहवा जो जस्स जावइओ ।। ५ ।। सः पुनरिह विज्ञेयः सन्ध्या: त्रीणि तावदोघेन । वृत्तिक्रियाऽविरुद्धोऽथवा यो यस्य यावत्क: ।। ५ ।।
सामान्यतया प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल - इस प्रकार तीन बार जिनपूजा करनी चाहिए और यदि इन कालों में सम्भव नहीं हो तो (अपवादपूर्वक) नौकरी, व्यापार आदि आजीविका के समय के अतिरिक्त जब भी समय मिले तब पूजा करनी चाहिए ।। ५ ।।
आजीविका के उपाय को धक्का न लगे ऐसी पूजा किसलिए? .. पुरिसेणं बुद्धिमया सुहवुड्ढेि भावओ गणंतेणं । जत्तेणं होयव्वं सुहाणुबंधप्पहाणेण ॥ ६ ॥ पुरुषेण बुद्धिमता सुखवृद्धिं भावतो गणयता । यलेन भवितव्यं सुखानुबन्धप्रधानेन ।। ६ ।।
परमार्थ से सुखवृद्धि की इच्छा वाले बुद्धिमान् पुरुष को ऐसा प्रयत्न करना चाहिए, जिससे स्व-पर कल्याण की परम्परा का विच्छेद न हो, अपितु Jain Education International
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