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चतुर्थ ]
पूजाविधि पञ्चाशक
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अन्यत्रारम्भवतो धर्मेऽनारम्भः कोऽनाभोगः । लोके प्रवचननिन्दा अबोधिबीजमिति दोषौ च ।। १२ ।।
गृहकार्यों में आरम्भ आदि कार्य करने वाले गृहस्थ को जिनपूजा में आरम्भ होता है, ऐसा जानकर उसमें स्नान आदि का त्याग करना उचित नहीं है। क्योंकि इससे लोक में जिनशासन की निन्दा और अबोधि ( सम्यक्त्व की अप्राप्ति ) ये दो दोष आते हैं।
विशेष : स्नान किये बिना पूजा करने से शास्त्र-विधि का निषेध होता है और लोक में जिनशासन की निन्दा होती है और इस निन्दा में कारण बनने वाले को भवान्तर में जिनशासन की प्राप्ति नहीं होती है, इसलिए स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहनकर ही पूजा करनी चाहिए ।। १२ ।।
भावशुद्धि नहीं रखने से लगने वाले दोष अविसुद्धावि हु वित्ती एवं चिय होइ अहिगदोसा उ । तम्हा दुहावि सुइणा जिणपूजा होइ कायव्वा ।। १३ ।। अविशुद्धाऽपि खलु वृतिरेवमेव भवति अधिकदोषा तु । तस्माद् द्विधाऽपि शुचिना जिनपूजा भवति कर्तव्या ।। १३ ।।
इसी प्रकार न्याय-नीति से रहित अशुद्ध जीविका के अर्जन से भी अधिक दोष लगते हैं, क्योंकि द्रव्यशुद्धि के अभाव की अपेक्षा भी भावशुद्धि के अभाव में अधिक दोष लगते हैं। (इसमें अज्ञानता, निन्दा और अबोधि के अतिरिक्त राजदण्ड इत्यादि दोष अधिक लगते हैं) इसलिए द्रव्य और भाव - इन दोनों प्रकारों की शुद्धि से युक्त होकर जिनपूजा करनी चाहिए ।। १३ ।।
(३) पूजासामग्री द्वार गंधवरधूवसव्वोसहीहिं उदगाइएहिं चित्तेहिं । सुरहिविलेवण-वरकुसुमदामबलिदीवएहिं च ।। १४ ।। सिद्धत्थयदहिअक्खयगोरोयणमाइएहिं जहलाभं । कंचणमोत्तियरयणाइदामएहिं च विविहेहिं ।। १५ ।। गन्धवरधूपसौषधिभिरुदकादिकैः चित्रैः । सुरभिविलेपन-वरकुसुमदाम-बलिदीपकैश्च ॥ १४ ।। सिद्धार्थकदधिअक्षतगोरोचनादिकैः यथालाभम् । कञ्चनमौक्तिकरत्नादिदामकैश्च विविधैः ॥ १५ ।।
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