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________________ ५६ पञ्चाशकप्रकरणम् [ तृतीय चैत्यवन्दन विधि योग्य जीव को ही बतलानी चाहिए तिव्वगिलाणादीणं भेसजदाणाइयाइं णायाइं । दट्ठव्वाइ इहं खलु कुग्गहविरहेण धीरेहिं ।। ५० ।। तीव्रग्लानादीनां भैषज्यदानादीनि ज्ञातानि । द्रष्टव्यानि इह खलु कुग्रहविरहेण धीरैः ।। ५० ।। धीर पुरुषों को दुराग्रह से रहित होकर चैत्य-वन्दन विधि का ज्ञान न होने पर विधिविहीन भी वन्दना करनी चाहिए, क्योंकि दुषमा काल में सभी को विधि का ज्ञान होना दुर्लभ है, विधि का ही आग्रह रखा जायेगा तो मार्ग का उच्छेद हो जायेगा - ऐसा विचार करके दुराग्रहों से मुक्त होकर बीमार व्यक्ति को दवा देने के उदाहरण के समान उपासकों की योग्यता के अनुसार उन्हें जिन-वंदन के लिये प्रेरित करना चाहिए। जैसे किसी को दवा देनी हो तो उसकी अवस्था देखनी पड़ती है, उसकी अवस्था एवं बीमारी के अनुसार उचित समय में, उचित मात्रा में, उचित दवा दी जाये तो उस दवा से रोगी को लाभ होता है, अन्यथा हानि। उसी प्रकार सर्वकल्याणकारी वन्दना-विधि भी योग्य जीवों को उनकी योग्यतानुसार विधिपूर्वक दी जाये और प्राप्तकर्ता भी उसकी विधिपूर्वक आराधना करे तो ही लाभ होगा, अन्यथा हानि होगी ।। ५० ॥ ॥ इति चैत्यवन्दनविधिर्नाम तृतीयं पञ्चाशकम् ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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