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चैत्यवन्दनविधि पञ्चाशक
भव्या अपि अत्र ज्ञेया: ये आसन्नाः न जातिमात्रेण ।
यदनादि श्रुते भणितमेतन्न तु इष्टफलजनकम् ।। ४७ ।।
इस प्रधान वन्दना की भूमिका को अभव्य-जीव प्राप्त नहीं कर सकते
हैं।
हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि भव्य जीव प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन सभी भव्यजीव भी इस वन्दना को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। वे ही भव्य - जीव इस वन्दना को प्राप्त कर सकते हैं जो आसन्न भव्य हैं। स्वभाव (जाति) से भव्य होने पर भी जो दूर भव्य हैं वे जीव इस वन्दना को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। क्योंकि आगम में भव्यत्व को अनादिकालीन कहा गया है, अतः भव्यत्व मात्र से मोक्ष की प्राप्ति होगी ही, यह भी आवश्यक नहीं है। यदि ऐसा होता तो सभी भव्य जीवों को मोक्ष प्राप्ति हो जाती ॥। ४७ ॥
तृतीय ]
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far-द्वेष से रहित जीव आसन्न भव्य हैं विहिअपओसो जेसिं आसण्णा तेवि सुद्धिपत्तत्ति । खुद्दमिगाणं पुण सुद्धदेसणा विधिअप्रद्वेषो
येषामासन्नास्तेऽपि
सीहणायसमा ।। ४८ ।। शुद्धिप्राप्तेति ।
सिंहज्ञातसमा ।। ४८ ।।
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क्षुद्रमृगाणां पुन: शुद्धदेशना
जिन जीवों को विधि अर्थात् जैन आचार के प्रति द्वेष नहीं है, वे जीव भी शुद्धि को प्राप्त होने के कारण आसन्न हैं। क्योंकि क्षुद्र कर्म वाले जीव रूपी हरिणों के लिए विधि का उपदेश सिंह की गर्जना के समान है। जिस प्रकार हरिणों को सिंह का गर्जन भयावह लगता है, उसी प्रकार कर्मों से बँधे जीवों को विधि अर्थात् आचारविषयक उपदेश भयावह लगता है, वे संसार से भयभीत हो जाते हैं ।। ४८ ।।
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सम्मं ॥ ४९ ॥
सूरिभि: ।
विधिपालन के लिए गीतार्थ को उपदेश आलोचिऊण एवं तंतं पुव्वावरेण सूरीहिं । विहिजो कायव्वो मुद्धाण हियट्ठया आलोच्य एवं तन्त्रं पूर्वापरेण विधियत्नः कर्तव्यो मुग्धानां हितार्थाय आचार्यों को उपर्युक्त विधि के अनुसार परस्पर अविरोधपूर्वक मुग्धजीवों के हितार्थ वन्दन विधि का सम्यक् रूप से प्रतिपादन करना चाहिए अर्थात् अप्रमत्त होकर स्वयं विधिपूर्वक ही जिन वन्दना करनी चाहिए और दूसरों से विधिपूर्वक ही जिन-वन्दना करानी चाहिए। क्योंकि मुग्धजीव दूसरों को देखकर प्रवृत्ति करने वाले होते हैं ।। ४९ ।।
सम्यक् ।। ४९ ।।
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