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________________ तृतीय उभयजनन स्वभाव वाली यह जिनवन्दना विधिपूर्वक करने पर मोक्षादि इष्ट फलदायिनी होती है और विधिरहित करने पर धर्मभ्रंश आदि अनिष्ट फलदायिनी होती है ऐसा नियम है। लौकिकी वन्दना ऐसी नहीं होती। जब इस लौकिकी वन्दना से मोक्षादि इष्ट फल नहीं मिलता तो धर्मभ्रंश आदि अनिष्ट फल कैसे मिल सकता है ? उसी प्रकार तीसरे एवं चौथे प्रकार की वन्दना से मोक्षादि इष्ट फल नहीं मिलता तो धर्मभ्रंश आदि अनिष्ट फल कैसे मिल सकता ? अर्थात् नहीं मिल सकता है ॥ ४४ ॥ ५४ - पञ्चाशकप्रकरणम् प्रस्तुत प्रकरण का उपसंहार तम्हा उ तदाभासा अण्णा एसत्ति णायओ णेया । तदत्थभावाणिओगेणं ।। ४५ ।। मोसाभासाणुगया तस्मात्तु तदाभासा अन्यैषेति न्यायतो ज्ञेया । तदर्थभावानियोगेन ॥ ४५ ॥ मृषाभाषानुगता इसलिए तीसरे एवं चौथे प्रकार की वन्दना में जिन आदि शब्द होने से वह जिन-वन्दना भी लौकिकी वन्दना जैसी होती है, ऐसा न्यायपूर्वक जानना चाहिए। इस वन्दना में सम्यक् श्रद्धा आदि भाव नहीं होने के कारण वह मृषावाद से युक्त है। अथवा मोक्षादि फल नहीं मिलने के कारण यह जिन-वन्दन मृषा है ।। ४५ ।। पहले - दूसरे प्रकार की वन्दना को अभव्य नहीं प्राप्त कर सकते सुहफलजणणसभावा चिंतामणिमाइएवि णाभव्वा । पावंति किं पुणेयं परमं परमपयबीयंति ।। ४६ । शुभफलजननस्वभावान् चिन्तामण्यादिकानपि प्राप्नुवन्ति किं पुनरेतां परमां नाभव्याः । परमपदबीजमिति ।। ४६ ।। अभव्य (मोक्ष प्राप्ति के अयोग्य) जीव शुभ फल को उत्पन्न करने के स्वभाव वाले चिन्तामणि, कल्पवृक्ष आदि को भी प्राप्त नहीं कर सकते हैं तो फिर मोक्ष की हेतुभूत और प्रधान प्रथम और द्वितीय प्रकार की वन्दना के अधिकारी कैसे हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं हो सकते हैं ।। ४६ ।। Jain Education International पहले और दूसरे प्रकार की वन्दना भी सभी भव्य जीव प्राप्त नहीं कर सकते हैं भव्वावि एत्थ या जे आसन्ना ण जाइमेत्तेणं । जमणाइ सुए भणियं एयं ण उ इट्ठफलजणगं ॥ ४७ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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