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तृतीय]
चैत्यवन्दनविधि पञ्चाशक
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के देवों में उत्पत्ति का हेतु होने से दुर्गति देने वाली होती है। पाँचवें आरे (दुष्षमा काल) में तो यह विशेष रूप से दुर्गति देने वाली होती है ।। ४१ ॥
इस विषय में अन्य आचार्यों का मत अण्णे उ लोगिगच्चिय एसा णामेण वंदणा जइणी । जं तीइ फलं तं चिय इमीगू ण उ अहिगयं किंचि ॥ ४२ ॥ अन्ये तु लौकिक्येव एषा नाना वन्दना जैनी ।
यत् तस्या: फलं तदेव अस्या न तु अधिकृतं किञ्चित् ।। ४२ ।। .. कुछ आचार्य कहते हैं कि तीसरे और चौथे प्रकार की वन्दना लौकिकी ही है। जैनेतर स्वमान्य देव की जो वन्दना करते हैं वह केवल नाम से वन्दना कही जाती है। क्योंकि लौकिक वन्दना का निम्न देवयोनि आदि में उत्पत्ति रूप जो फल है वही फल इस वन्दना का है। लौकिक वन्दना से थोड़ा भी अधिक फल इस वन्दना से नहीं मिलता है ।। ४२ ॥
इस मतान्तर में ग्रन्थकार की सम्मति एयंपि जुज्जइ च्चिय तदणारंभाउ तप्फलं व जओ । तप्पच्चवायभावोऽवि हंदि तत्तो ण जुत्तत्ति ॥ ४३ ।। एतदपि युज्यत एव तदनारम्भात् तत्फलमिव यतः ।। तत्प्रत्यपायभावोऽपि हंदि ततो न युक्त इति ।। ४३ ।।
दूसरे कुछ आचार्यों के मत में तीसरे एवं चौथे प्रकार की वन्दना जिनवन्दना नहीं है, उनका यह मत भी युक्तिसंगत हो सकता है, क्योंकि उन वन्दनाओं में (अपुनर्बन्धक आदि अवस्थाओं में) जो भाव होने चाहिए वे नहीं होते हैं। इसलिए जैन दृष्टि से वन्दना की शुरुआत ही नहीं हुई। अत: उन तीसरे
और चौथे प्रकार की दो वन्दनाओं से अर्थात् नाम मात्र की जिन-वन्दना से जैसे इस लोक में क्षुद्र उपद्रवों का नाश, धन-धान्यादि की वृद्धि, परलोक में विशिष्ट देवयोनि की प्राप्ति और कालान्तर में मोक्षरूप शुभ फल की प्राप्ति नहीं होती है। वैसे ही जिन-वन्दना की विराधना से मिलने वाला उन्माद-रोग, धर्मभ्रंश आदि दुष्ट फल भी नहीं मिलता है ।। ४३ ॥
उपर्युक्त गाथा का विशेष स्पष्टीकरण जमुभयजणणसहावा एसा विहिणेयरेहिं ण उ अण्णा । ता एयस्साभावे इमीएँ एवं कहं बीयं ? ॥ ४४ ।। यदुभयजननस्वभावा एषा विधिनेतरैर्न तु अन्या । तदेतस्याभावेऽस्यामेवं कथं द्वितीयम् ? || ४४ ।।
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