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पञ्चाशकप्रकरणम्
[ तृतीय
के समान शुद्ध वन्दना है। यह वन्दना अवश्य मोक्षफलदायिनी और यथोचित गुण वाली होती है। यथोचित गुण वाली अर्थात् पूर्वोक्त गुण वाली होती है ।। ३८ ।।
रुपये के दूसरे प्रकार के साथ तुलना भावेणं वण्णादिहिं तहा उ जा होइ अपरिसुद्धत्ति । बीयरूवगसमा खलु एसा वि सुहत्ति णिद्दिट्ठा ।। ३९ ॥ भावेन वर्णादिभिस्तथा तु या भवति अपरिशुद्धेति । द्वितीयरूपकसमा खलु एषाऽपि शुभेति निर्दिष्टा ॥ ३९ ।।
जो वन्दना भाव से युक्त हो, परन्तु वर्णोच्चारण आदि विधि से अशुद्ध हो वह वन्दना दूसरे प्रकार के उस रुपये के समान है, जिसकी धातु शुद्ध है किन्तु छाप ठीक नहीं है। इस वन्दना को भी तीर्थङ्करों ने शुभ कहा है, क्योंकि क्रिया की अपेक्षा भाव श्रेष्ठ है और क्रिया में भावों की ही प्रधानता होती है ।। ३९ ।।
तीसरे-चौथे प्रकार के रुपये के साथ चैत्यवन्दन की तुलना भावविहूणा वण्णाइएहिं सुद्धावि कूडरूवसमा । उभयविहूणा णेया मुद्दप्पाया अणिट्ठफला ।। ४० ।। भावविहीना वर्णादिकैः शुद्धाऽपि कूटरूपसमा । उभयविहीना ज्ञेया मुद्राप्राया अनिष्टफला ।। ४० ।।
भावरहित चैत्यवन्दन वर्णोच्चारण आदि से शुद्ध होने पर भी खोटे रुपये के समान होता है अर्थात् श्रद्धा के बिना वन्दना चाहे जितने भी शुद्ध उच्चारणपूर्वक की जाये, वह वाञ्छित फलदायिनी नहीं होती है और जो वन्दना श्रद्धा और शुद्ध वर्णोच्चारण - इन दोनों से रहित हो उसे केवल चिह्नरूप जानना चाहिए। श्रद्धा और वर्णादि के शुद्ध उच्चारण - इन दोनों से रहित वन्दना अनिष्ट फलदायिनी होती है ।। ४० ॥
तीसरे-चौथे प्रकार की वन्दना वाले जीव होइ य पाएणेसा किलिट्ठसत्ताण मंदबुद्धीणं । पाएण दुग्गइफला विसेसओ दुस्समाए उ ॥ ४१ ।। भवति च प्रायेण एषा क्लिष्टसत्त्वानां मन्दबुद्धीनाम् ।। प्रायेण दुर्गतिफला विशेषा दुष्षमायां तु ।। ४१ ।।
तीसरे और चौथे प्रकार की वन्दना प्रायः अति दुःखी और मन्द बुद्धि वाले जीवों को होती है। कभी-कभी उपयोगरहित अवस्था में संक्लेशरहित जीवों को भी होती है, इसीलिए मूल में 'प्रायः' पद रखा गया है तथा प्राय: निम्न जाति
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