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तृतीय]
चैत्यवन्दनविधि पञ्चाशक
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द्रव्येण टङ्केन च युक्त: छेकः खलु रूपको भवति । टङ्कविहीनो द्रव्येऽपि न खलु एकान्तछेक इति ।। ३५ ।। अद्रव्ये टङ्केनापि कूटस्तेनापि विना तु मुद्रेति । फलमात्र एवमेव मुग्धानां प्रतारणं मुक्त्वा ।। ३६ ।।
स्वर्णादि द्रव्य शुद्ध और मुद्रा (छाप) प्रामाणिक हो तो रुपया असली होता है। स्वर्णादि द्रव्य तो शुद्ध हो, किन्तु मुद्रा ठीक न हो तो रुपया पूर्णत: प्रामाणिक शुद्ध नहीं होता है ।। ३५ ।।
मुद्रा तो ठीक हो, किन्तु स्वर्णादि द्रव्य अशुद्ध हो तो भी रुपया जाली कहा जाता है। मुद्रा और द्रव्य दोनों के ही अप्रामाणिक होने से रुपया नकली या खोटा होता है। रुपये के इन चार प्रकारों में से रुपये के प्रकार के अनुसार ही उसका मूल्य मिलता है। धातु एवं मुद्रा दोनों शुद्ध होने पर रुपये का पूरा मूल्य मिलता है। धातु शुद्ध होने पर रुपये के मूल्य से थोड़ा कम मूल्य मिलता है। किन्तु धातु और मुद्रा दोनों के ही अप्रामाणिक होने पर उस रुपये का बाजार में कुछ भी मूल्य नहीं होता है। उससे तो मात्र लोगों को ठगा जाता है ।। ३६ ।।
___ मूों को ठगने जैसा फल यहाँ विवक्षित नहीं है तं पुण अणत्थफलदं णेहाहिगयं जमणुवओगित्ति । आयगयं चिय एत्थं चिंतिज्जइ समयपरिसुद्धं ।। ३७ ।। तत्पुनरनर्थफलदं नेहाधिकृतं यदनुपयोगीति । आत्मगतमेवात्र चिन्त्यते समयपरिशुद्धम् ।। ३७ ।।
जो अनुपयोगी है ऐसी दसरों को धोखा देने की प्रवृत्ति अनर्थ फलदायी है, इसलिये उसको यहाँ प्रस्तुत नहीं किया गया है। यहाँ शुद्ध रूप से आत्मा के लिए उपयोगी आगमोक्त मोक्षादि फल की विचारणा की जाती है। द्रव्य
चैत्यवन्दन के द्वारा दूसरों को ठगने से मिलने वाला फल आत्मा सम्बन्धी नहीं है, अपितु पुद्गल सम्बन्धी है ।। ३७ ।।
__ चैत्यवन्दन की रुपये के पहले प्रकार के साथ तुलना भावेणं वण्णादिहिं चेव सुद्धेहिं वंदणा छेया । मोक्खफलच्चिय एसा जहोइयगुणा य णियमेणं ।। ३८ ॥ भावेन वर्णादिभिश्चैव शुद्धैर्वन्दना छेका । मोक्षफलैव एषा यथोचितगुणा च नियमेन ।। ३८ ।। श्रद्धायुक्त, स्पष्ट उच्चारण एवं विधि सहित की गई वन्दना शुद्ध मुद्रा
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