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पञ्चाशकप्रकरणम्
[ तृतीय
भावपूर्वक चैत्यवन्दन करने पर जीवों का संसार अधिक से अधिक कुछ कम अर्धपुद्गलपरावर्त मात्र रहता है, उससे अधिक नहीं रहता, ऐसा जैनागमों में प्रसिद्ध है।
भावार्थ : शुद्ध चैत्यवन्दन की स्थिति प्राप्त होने के बाद जीव संसार में कुछ कम अर्धपुद्गलपरावर्त से अधिक नहीं रहता है। यद्यपि उतने समय में शुद्ध चैत्यवन्दन की स्थिति अनन्त बार प्राप्त नहीं होती है, तथापि यह भी सत्य है कि चैत्यवन्दन के अवसरों की प्राप्ति उसे अनन्त बार हुई है। अत: सिद्ध होता है कि अनन्त बार किया गया उसका वह चैत्यवन्दन अशुद्ध ही था ।। ३२ ।।
प्रस्तुत विषय पर विचार हेतु विद्वानों से निवेदन इय तंतजुत्तिओ खलु णिरूवियव्वा बुहेहिं एसत्ति । ण हु सत्तामेत्तेणं इमीइ इह होइ णेव्वाणं ।। ३३ ।। इति तन्त्रयुक्तितः खलु निरूपयितव्या बुधैः एषेति । न खलु सत्तामात्रेण अस्या इह भवति निर्वाणम् ।। ३३ ॥
इस प्रकार इस चैत्यवन्दन की प्रक्रिया को विद्वानों को आगम और युक्ति से निरूपित करना चाहिए। क्योंकि चैत्यवन्दन करने मात्र से मोक्ष नहीं होता है, अपितु शुद्ध चैत्यवन्दन करने से ही मोक्ष होता है ।। ३३ ।।
रुपये के उदाहरण से शुद्ध-अशुद्ध चैत्यवन्दना पर विचार किंचेह छेयकूडगरूवगणायं भणंति समयविओ। तंतेसु चित्तभेयं तंपि हु परिभावणीयं तु ।। ३४ ।। किञ्चेह छेदकटकरूपकज्ञातं भणन्ति समयविदः । तन्त्रेषु चित्रभेदं तदपि खलु परिभावनीयं तु ।। ३४ ।।
सिद्धान्त के जानकार भद्रबाहु स्वामी आदि ने आवश्यकनियुक्ति आदि ग्रन्थों में चार प्रकार के शुद्ध-अशुद्ध रुपयों का दृष्टान्त दिया है। चैत्यवन्दन के विषय में भी वह दृष्टान्त विचारणीय है ।। ३४ ।।
. रुपये के चार प्रकार दव्वेणं टंकण य जुत्तो छेओ हु रूवगो होइ । टंकविहूणो दव्वेऽवि ण खलु एंगतछेओत्ति ।। ३५ ॥ अद्दव्वे टंकेणवि कूडो तेणवि विणा उ मुद्दत्ति । फलमेत्तो एवं चिय मुद्धाण पयारणं मोत्तुं ।। ३६ ॥
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