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तृतीय]
चैत्यवन्दनविधि पञ्चाशक
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इतस्तु
करण को प्राप्त आत्मा अन्तर्मुहूर्त में ही सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है। इसलिए कहा गया है कि जब जीव समयक्त्वाभिमुख हो तब अनिवृत्तिकरण होता है ।। ३० ॥
शुद्ध वन्दना ही मोक्ष का कारण है इत्तो उ विभागाओ अणादिभवदव्वलिंगओ चेव । णिउणं णिरूवियव्वा एसा जह मोक्खहेउत्ति ।। ३१ ।।
विभागादनादिभवद्रव्यलिङ्गतश्चैव । निपुणं निरूपयितव्या एषा यथा मोक्षहेतुरिति ।। ३१ ।।
उपर्युक्त यथाप्रवृत्तिकरण आदि विभागों के आधार पर तथा अनादि संसार में भटकते जीवों के द्वारा स्वीकृत द्रव्यलिङ्ग अर्थात् बाह्यवेश के आधार पर इस वन्दना का सम्यक् प्रकार से निरूपण करना चाहिए, जिससे यह मोक्ष का साधन बने ।। ३१ ।।
भावार्थ : जैसा कि २८वीं गाथा में कहा गया है - यथाप्रवृत्तिकरण के ऊपर के अपुनर्बन्धकादि जीवों के द्वारा की गई वंदना ही शुद्ध वन्दना होती है अर्थात् यथाप्रवृत्तिकरण के अन्दर के जीवों की वन्दना अशुद्ध होती है। वे चैत्यवन्दन नहीं कर पाते हैं, ऐसा भी नहीं है। प्राय: प्रत्येक जीव को यथाप्रवृत्तिकरण की दशा में अनन्त बार चैत्यवन्दन का अवसर प्राप्त हुआ है। यह शास्त्रों में वर्णित है कि उसने अनन्त बार मुनि-वेश धारण किया और धर्माचारण भी किया, किन्तु यथाप्रवृत्तिकरण से ग्रन्थिदेश में आये बिना चैत्यवन्दनादि धर्म-क्रियाओं की प्राप्ति नहीं होती है - ऐसा नियम है, अतः यथाप्रवृत्तिकरण से ग्रन्थिदेश को प्राप्त होकर तथा द्रव्यलिङ्ग अर्थात् मुनि-वेश को धारण करके अनन्त बार चैत्यवन्दन किया, परन्तु मोक्ष नहीं मिला, क्योंकि चैत्यवन्दन अशुद्ध था। इसलिये उपदेशक को इस बात को ध्यान में रखकर उपदेश देना चाहिए कि व्यक्ति का चैत्यवन्दन उसके मोक्ष का कारण बने ।। ३१ ।।
यथाप्रवृत्तिकरण में चैत्यवन्दन की अशुद्धि का निर्देश णो भावओ इमीए परोऽवि हु अवड्डपोग्गला अहिगो । संसारो जीवाणं हंदि पसिद्धं जिणमयम्मि ॥ ३२ ।। न भावतोऽस्यां परोऽपि खलु अपार्धपुद्गलाद् अधिकः । संसारो जीवानां हंदि प्रसिद्धं जिनमते ।। ३२ ।।
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