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________________ ४८ पञ्चाशकप्रकरणम् [ तृतीय करण कहा जाता है। यथा अर्थात् बिना किसी पुरुषार्थ के स्वतः हुई प्रवृत्ति यथाप्रवृत्तिकरण कहलाती है। ग्रन्थि : ग्रन्थि अर्थात् वृक्ष की दुर्भेद्य और कठिन गाँठ जैसा दुर्भेद्य रागद्वेष का तीव्र परिणाम। ग्रन्थि-देश : जिस प्रकार संसारी जीवों का यथाप्रवृत्तिकरण से प्रति क्षण कर्मक्षय होता है, उसी प्रकार उनके नये कर्म भी बँधते रहते हैं, इसलिए कर्म पूर्णतया नष्ट नहीं हो पाते हैं। निरन्तर कर्मक्षय एवं कर्मबन्ध के कारण कर्मों की मात्रा कभी कम होती है और कभी बढ़ जाती है। इस प्रकार कर्मों की मात्रादि कम होते-होते आयुष्य के अतिरिक्त सात कर्मों की स्थिति घटकर एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम से कुछ कम रहे, तब ग्रन्थि (रागद्वेष के तीव्र परिणामों) का उदय होने से उस अवस्था विशेष को ग्रन्थिदेश कहते हैं। सात कर्मों की उत्कृष्ट बन्ध स्थिति हो तब तो ग्रन्थि का उदय होगा ही, लेकिन घटते-घटते भी जहाँ तक कुछ कम एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम की स्थिति हो, वहाँ तक भी ग्रन्थि का उदय होता है। उसके बाद ग्रन्थि का उदय नहीं होता है। क्योंकि उसके बाद अपूर्वकरण से ग्रन्थि का भेद हो जाता है। इस प्रकार ग्रन्थि की अन्तिम सीमा सात कर्मों की कुछ कम एक कोडाकोड़ी सागरोपम की स्थिति होने तक है। इस स्थिति को ग्रन्थिदेश (ग्रन्थि की अन्तिम सीमा) कहा जाता है। इस ग्रन्थिदेश तक यथाप्रवृत्तिकरण होता है। यथाप्रवृत्तिकरण से जीव को उक्त अवस्था प्राप्त हो सकती है। यहाँ से आगे बढ़ने के लिए जीव को अपूर्वकरण आदि पुरुषार्थ की जरूरत पड़ती है। अभव्य जीव इतनी अवस्था प्राप्त करने पर भी पुरुषार्थ नहीं कर सकने के कारण आगे नहीं बढ़ पाते हैं। इसलिए २९वीं गाथा में कहा गया है कि अभव्यों को केवल यथाप्रवृत्तिकरण ही होता है। दूरभव्यों को भी यथाप्रवृत्तिकरण ही होता है। अपूर्वकरण : रागद्वेष की गाँठ को नष्ट करने का जैसा उत्साह इससे पूर्व न हुआ हो और बाद में होवे तब अपूर्वकरण होता है। जब शक्तिशाली आसनभव्य जीव में ग्रन्थिदेश की स्थिति आने के बाद रागद्वेष की गाँठ को भेदने का पहले कभी नहीं प्रकट हुआ हो ऐसा तीव्र पुरुषार्थ प्रकट होता है, तब उसे ही अपूर्वकरण कहते हैं। अनिवृत्तिकरण : अर्थात् सम्यक्त्व को प्राप्त कराने वाला विशुद्ध अध्यवसाय। अनिवृत्ति - पुनः पीछे नहीं मुड़ने वाला। जो अध्यवसाय सम्यक्त्व प्राप्त किये बिना पीछे नहीं मुड़े, वह अनिवृत्तिकरण कहा जाता है। अनिवृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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