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तृतीय ]
चैत्यवन्दनविधि पञ्चाशक
प्रथमकरणोपरि तथा अनभिनिविष्टानां सङ्गता एषा । त्रिविधं च सिद्धमेतत् प्रकटं समये यतो भणितम् ।। २८ ।।
यह शुद्ध वन्दना यथाप्रवृत्तिकरण से ऊपर के तथा मिथ्या आग्रह से रहित जीवों में ही संभव होती है अर्थात् अपुनर्बन्धकादि जीवों का चैत्यवन्दन ही शुद्ध हो सकता है। इससे नीचे की अवस्था वाले जीवों का चैत्यवन्दन अशुद्ध होता है। आगम में इस करण के तीन भेद बतलाये गये हैं ।। २८ ।।
करण के तीन प्रकार करणं अहापवत्तं अपुव्वमणियट्टि चेव भव्वाणं । इयरेसिं पढमं चिय भण्णइ करणत्ति परिणामो ।। २९ ॥ करणं यथाप्रवृत्तमपूर्वमनिवृत्ति चैव भव्यानाम् । इतरेषां प्रथमं चैव भण्यते करणमिति परिणामः ।। २९ ॥
यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण-ये तीन करण भव्य-जीवों के ही होते हैं और अभव्यों को प्रथम यथाप्रवृत्तिकरण ही होता है। करण जीव के परिणाम विशेष (अध्यवसाय) को कहते हैं ।। २९ ।।
कौन करण कब होगा - इसका निर्देश जा गंठी ता पढमं गठिं समइच्छओ भवे बीयं । अणियट्टीकरणं पुण सम्मत्तपुरक्खडे जीवे ॥ ३० ॥ यावद् ग्रन्थिः तावत् प्रथमं ग्रन्थिं समतिगच्छतो भवेद् द्वितीयम् । अनिवृत्तिकरणं पुनः सम्यक्त्वपुरस्कृते जीवे ॥ ३० ।।
जब तक ग्रन्थि (तीव्र कषायादि भाव) हो तब तक पहला यथाप्रवृत्तिकरण होता है। ग्रन्थि को अतिक्रान्त करने पर दूसरा अपूर्वकरण और जब जीव सम्यक्त्व की ओर अभिमुख हो गया हो तो तब अनिवृत्तिकरण होता है। विशेष इस प्रकार है --
यथाप्रवृत्तिकरण : नदी-पाषाणन्याय' से इच्छा के बिना ही कर्मों के क्षय होने रूप अध्यवसाय विशेष यथाप्रवृत्तिकरण है। संसारी जीवों के भी बिना इच्छा के अनादि काल से प्रतिक्षण कर्मक्षय होता है, इसीलिए इसे यथाप्रवृत्ति१. जिस प्रकार नदी का पत्थर 'मैं गोल बनूँ' ऐसी इच्छा के बिना (बिना प्रयत्न
किये) ही नदी की धारा से टकरा-टकरा कर गोल बन जाता है, उसी प्रकार मैं कर्मक्षय करूँ - ऐसी इच्छा के बिना (प्रयत्न किये बिना) हो रहे कर्मक्षय को 'नदी-पाषाणन्याय' कहा जाता है।
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