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________________ ४६ पञ्चाशकप्रकरणम् . [तृतीय उक्त विषय का अनुभव से समर्थन अणुहवसिद्ध एयं पायं तह जोगभावियमईणं । सम्ममवधारियव्वं बुहेहिं लोगुत्तममईए ।। २५ ।। अनुभवसिद्धमेतत् प्राय: तथा योगभावितमतीनाम् । सम्यगवधारयितव्यं बुधैः लोकोत्तममत्या ।। २५ ।। उपर्युक्त धर्म व्यापार में विशेष रूप से निहित बुद्धि वाले (प्रतिभाशाली) व्यक्तियों के द्वारा सामान्य रूप से अनुभूत इस भाववर्द्धक क्रिया को श्रेष्ठ बुद्धि के धारक विद्वानों को अच्छी तरह से धारण करना चाहिए ।। २५ ।। चैत्यवन्दन का लक्षण जिण्णासावि हु एत्थं लिंगं एयाइ हंदि सुद्धाए । णेव्वाणंगनिमित्तं सिद्धा एसा तयत्थीणं ।। २६ ।। जिज्ञासाऽपि खल्वत्र लिङ्गमेतस्या हंदि शुद्धायाः । निर्वाणाङ्गनिमित्तं सिद्धा एषा तदर्थिनाम् ।। २६ ।। शुद्धभावों से की गई इस वन्दना में जिज्ञासा (जानने की इच्छा) भी एक मुख्य लक्षण है, जो निर्वाण चाहने वालों को निर्वाण के (सम्यग्ज्ञानादि) हेतुओं के प्रति होती है, अर्थात् साधक वेला, विधान और आराधना आदि के साथ-साथ मोक्ष के लिए अपेक्षित सम्यग्ज्ञानादि के हेतुओं के प्रति भी जिज्ञासु होता है, यह बात सिद्ध है ।। २७ ।। जिज्ञासा मोक्ष की प्राप्ति में निमित्त है, इसकी सिद्धि धिइसद्धासुहविविदिसभेया जं पायसो उ जोणित्ति । सण्णाणादुदयम्मी पइट्ठिया जोगसत्थेसु ।। २७ ।। धृतिश्रद्धासुखाविविदिषाभेदा यत् प्रायेण तु योनिरिति ।। सज्ज्ञानाद्युदये प्रतिष्ठिता योगशास्त्रेषु ।। २७ ।। जिज्ञासा मोक्ष की प्राप्ति में निमित्त है। क्योंकि पतञ्जलि के योगशास्त्र आदि आध्यात्मिक ग्रन्थों में प्रायः धृति, श्रद्धा, सुखा, विविदिषा (जिज्ञासा) आदि को मोक्ष के कारण-भूत सम्यग्ज्ञानादि की उत्पत्ति के हेतु के रूप में माना गया है ।। २७ ।। शुद्ध वन्दना की प्राप्ति का नियम पढमकरणोवरि तहा अणहिणिविट्ठाण संगया एसा । तिविहं च सिद्धमेयं पयडं समए जओ भणियं ।। २८ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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