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तृतीय ]
चैत्यवन्दनविधि पञ्चाशक
बिना दूसरे घर में प्रकाश जा ही नहीं सकता है। उसी प्रकार छिन्न ज्वाला (मूल ज्वाला से अलग हुई ज्वाला) मूल ज्वाला से सम्बद्ध नहीं दिखती, किन्तु उसके परमाणु मूल ज्वाला के पास होने से मूल ज्वाला से सम्बद्ध मानने पड़ते हैं। उसी प्रकार प्रस्तुत चैत्यवन्दन में भिन्न-भिन्न समय पर भिन्न-भिन्न उपयोग होने पर भी उपयोग का परावर्त अति तीव्र गति से होने के कारण हमें एक ही उपयोग दिखलाई देता है, किन्तु शेष उपयोगों के भाव भी वहाँ होते हैं।
उपर्युक्त उदाहरण का समर्थन
णय तत्थवि तदणूणं हंदि अभावो ण ओवलंभोवि । चित्तस्सवि विणणेओ एवं
सेसोवओगे || २३ ॥ उपलम्भोऽपि । शेषोपयोगेषु ।। २३ ।
एक ज्वाला के मूल ज्वाला से अलग होने के बावजूद उसके परमाणुओं का अभाव नहीं होता, क्योंकि यदि उन परमाणुओं का सर्वथा अभाव माना जाये तो ज्वाला की जो सन्तति (प्रवाह) दिखलाई देती है, वह दिखलाई नहीं पड़ेगी, क्योंकि नई ज्वालाएँ मूल ज्वाला से अलग होने के बावजूद उसके परावर्तित परमाणु वहाँ होते हैं दिखलाई नहीं देते हैं, यह बात अलग है। उसी प्रकार एकाग्रचित्त का एक समय में एक ही विषय में उपयोग होता है, किन्तु उसके अतिरिक्त अन्य विषयों के परमाणु (भाव) भी वहाँ मौजूद होते हैं। यह बात अलग है कि वे वहाँ दिखलाई नहीं देते हैं ।। २३ ।।
न च तत्रापि तदनूनं हंदि अभावो न चित्तस्यापि विज्ञेय एवं
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मुद्रा आदि विधि में सावधानी रखने का कारण खाओवसमिगभावे दढजत्तकयं सुहं अणुट्ठाणं । परिवडियंपि हु जायइ पुणोवि तब्भाववुड्डिकरं ॥ २४ ॥ क्षायोपशमिकभावे दृढयत्नकृतं शुभमनुष्ठानम् । प्रतिपतितमपि खलु जायते पुनरपि तद्भाववृद्धिकरम् ॥ २४ ॥
क्षायोपशमिक भाव ( मिथ्यात्व और मोहनीयादि कर्मों के क्षय एवं उपशमित होने की दशा में) परम आदरपूर्वक किये गये चैत्यवन्दनादि अनुष्ठान ( आचरण ) में ( उन-उन कर्मों के उदय के कारण कभी - कभी ) शिथिलता भी आ जाती है, किन्तु क्षायोपशमिक भाव होने के कारण वह शुभाचरण उसके अध्यवसाय ( आत्मपरिणाम ) का वर्धक ही होता है। इसलिए शुभभाव रूप मोक्ष के हेतुओं की वृद्धि करने वाला होने के कारण चैत्यवन्दन करना चाहिए ।। २४ ।।
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