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पञ्चाशकप्रकरणम्
[तृतीय
चत्वारि अङ्गलानि पुरत ऊनानि यत्र पश्चिमतः । पादयोरुत्सर्ग एषा पुनर्भवति जिनमुद्रा ।। २० ।।
दो पैरों के बीच आगे के भाग में चार अङ्गुल और पिछले भाग में चार अङ्गुल से थोड़ा कम अन्तर रखने से जिनमुद्रा होती है। जिन अर्थात् अर्हन्त; कायोत्सर्गस्थ जिन की मुद्रा जिनमुद्रा कही जाती है ।। २० ।।
मुक्ताशुक्ति मुद्रा का स्वरूप मुत्तासुत्ती मुद्दा समा जहिं दोऽवि गन्भिया हत्था । ते पुण ललाडदेसे लग्गा अण्णे अलग्गत्ति ।। २१ ।। मुक्ताशुक्ति मुद्रा समौ यस्यां द्वावपि गर्भितौ हस्तौ । तौ पुनर्ललाटदेशे लगौ अन्ये अलग्राविति ।। २१ ।।
दोनों हाथों को (अंगुलियों को) आमने-सामने रखकर बीच की हथेली को थोड़ा चौड़ा करके दोनों हाँथ ललाट पर लगाने से (दूसरों के मतानुसार ललाट से दूर रखने से) मुक्ताशुक्ति मुद्रा होती है। आमने-सामने रहने वाली मोती की सीप जैसी मुद्रा मुक्ताशुक्ति मुद्रा कहलाती है ।। २४ ।।
सम्पूर्ण चैत्यवन्दन में उपयोग की आवश्यकता सव्वत्थवि पणिहाणं तरगयकिरियाभिहाणवन्नेसु । अत्थे विसए य तहा दिटुंतो छिन्नजालाए ।। २२ ।। सर्वत्रापि प्रणिधानं तद्गतक्रियाभिधानवर्णेषु । अर्थे विषये च तथा दृष्टान्तः छिन्नज्वालाया: ।। २२ ।।
चैत्यवन्दन में चैत्यवन्दन सम्बन्धी (१) क्रियाओं - मुद्रा करना, मुँह के आगे मुँहपत्ती लगाना, भूमि प्रमार्जन करना वगैरह, (२) सूत्रों के पद, (३) अकारादि वर्ण, (४) सूत्रों के अर्थ और (५) जिनप्रतिमा -इन पाँचों में उपयोग लगाना चाहिए ।। २२ ।।
उपर्युक्त बात को छिन्न ज्वाला के उदाहरण से सिद्ध करते हैं - जिस प्रकार मूल ज्वाला से नई-नई ज्वालाएँ निकलकर मूल ज्वाला से अलग दिखती हैं, फिर भी उनको मूल ज्वाला से सम्बद्ध मानना पड़ता है, क्योंकि अलग हुई ज्वाला के परमाणु रूपान्तरित होकर वहाँ अवश्य रहते हैं, किन्तु दिखलाई नहीं पड़ते हैं। एक घर में रखे गये दीप का प्रकाश दूसरे घर में दिखलाई देता है। यहाँ मूल घर के झरोखे से प्रकाश निकलकर आया होने पर भी स्पष्ट दिखलाई नहीं देता है, फिर भी प्रकाश निकला है - ऐसा मानना पड़ता है, क्योंकि निकले
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