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तृतीय]
चैत्यवन्दनविधि पञ्चाशक
पञ्चकः प्रणिपात: स्तवपाठो भवति योगमुद्रया । वन्दनं जिनमुद्रया प्रणिधानं मुक्ताशुक्त्या ।। १७ ।।
नमुत्थुणं सूत्र को प्रणिपात सूत्र कहा जाता है। नमुत्थुणं सूत्र में नमन और स्तवन-ये दो क्रियाएँ होती हैं। अर्थात् प्रणिपात प्रथमत: नमन होने के कारण इसे प्रणिपात सूत्र भी कहा जाता है। यह प्रणिपात पञ्चाङ्गी (दो घुटने, दो हाथ और मस्तक -- इन पाँच अंगों को झुकाकर निर्मित) मुद्रा से बोलना चाहिए। स्तवपाठ नमुत्थुणं सूत्र योगमुद्रा से बोलना चाहिए। 'अरिहंत चेइयाणं' आदि सूत्र जिनमुद्रा से अर्थात् खड़े होकर बोलना चाहिए। प्रणिधान सूत्र अर्थात् 'जयवीराय' सूत्र मुक्ताशुक्ति मुद्रा से बोलना चाहिए ।। १७ ।।
पंचांगीमुद्रा दो जाणू दोण्णि करा पंचमगं होइ उत्तमंगं तु । सम्मं संपणिवाओ णेओ पंचंगपणिवाओ ।। १८ ॥ द्वे जानुनी द्वौ करौ पञ्चमकं भवति उत्तमाङ्गं तु । सम्यक्-सम्प्रणिपातो ज्ञेयः पञ्चाङ्गप्रणिपातः ।। १८ ।।
दो घुटने, दो हाथ और मस्तक - इन पाँच अङ्गों को सम्यक्तया जमीन पर लगाकर किया गया प्रणाम पञ्चाङ्गी प्रणाम (प्रणिपात) कहा जाता है ।। १८ ॥
____ योगमुद्रा का स्वरूप अण्णोण्णंतरिअंगुलिकोसागरेहिं दोहिं हत्थेहिं । पिट्टोवरिकोप्परसंठिएहिं तह जोगमुद्दत्ति ॥ १९ ।। अन्योन्यान्तरिताङ्गुलिकोशाकाराभ्यां द्वाभ्यां हस्ताभ्याम् । पेट्टोपरिकूर्परसंस्थिताभ्यां तथा योगमुद्रेति ॥ १९ ॥
दोनों हाथों की अङ्गुलियों को एक दूसरे से मिलाकर हथेली को कमल की कली के समान बनाकर दोनों हाथों की कुहनियों को पेट पर रखने से योगमुद्रा होती है। जिस मुद्रा में योग की प्रधानता हो, वह योगमुद्रा है ।। १९ ॥
जिनमुद्रा का स्वरूप चत्तारि अंगुलाई पुरओ ऊणाइँ जत्थ पच्छिमओ ।
पायाणं उस्सग्गो एसा पुण होइ जिणमुद्दा ॥ २० ॥ १. इस गाथा में पंचंगो प्रथमा विभक्ति में है, लेकिन अर्थ तृतीया विभक्ति के
अनुसार होगा। यहाँ मुद्रा का अध्याहार करके तृतीयान्त अर्थ लेना उचित है, क्योंकि मुद्रा का अधिकार है और पंचांगी एक मुद्रा है।
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